ऋतुपर्ण दवे===
मानसून दस्तक दे रहा है, आइए स्वागत करें। बेसब्र इंतजार, सूखा और झुलसाती गर्मी के बीच वर्षा की फुहार, किसे अच्छी नहीं लगती? हमेशा की तरह बारिश आए और चली जाए, ऐसा इस बार न हो। ऐसी युक्ति ताकि, वर्षा जल को भूगर्भ में सहेजा जाए, जो सहज, सुलभ और संभव है। बिना ज्यादा खर्च के, अगली गर्मी के लिए पानी जमा करें, अपने ‘जल बैंक’ में। कितना अच्छा हो कि इसी बरसात हो नेक शुरुआत, जिससे आगे सूखे की कोख हरी न हो और शायद जलसंकट ही न आए।
फोटो: शिमला में 21 जून, 2016 को बरसात का आनंद लेते पर्यटक। (आईएएनएस)
सुनने में थोड़ा अटपटा जरूर है, लेकिन जरा सी इच्छाशक्ति और थोड़े से प्रयासों से, धरती के गर्भ में ही अपनी हर जरूरतों के लिए आप पानी का भंडार सहेज सकते हैं। क्यों न ऐसा कर सूखे जैसे बुरे वक्त की नौबत को रोकें और जलसंकट से भी उबरें।
लेकिन इसके लिए मिल-जुल कर, स्वस्फूर्त मुहिम चलानी होगी, लोगों को, प्रेरित और प्रोत्साहित करना होगा तभी संभव है।
जलसंकट के संदर्भ में विश्व बैंक की उस रिपोर्ट को नजरअंदाज करना बेमानी होगा जो कहती है, “जलवायु परिवर्तन और बेतहाशा पानी के दोहन की मौजूदा प्रवृत्ति से बहुत जल्द देशभर के 60 फीसदी वर्तमान जलस्रोत सूख जाएंगे। खेती तो दूर की कौड़ी रही, प्यास बुझाने को पानी होना, नसीब की बात होगी।”
उधर ‘वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम’ की रिपोर्ट ने भी जलसंकट को दस शीर्ष खतरों में ऊपर रखा है। दसवीं ‘ग्लोबल रिस्क’ रिपोर्ट में यह अहम है। ऐसा पहली बार हुआ है, जब जलसंकट को बड़ा और संवेदनशील मुद्दा माना गया है, वरना दशकभर पहले तक इसमें वित्त चिंताएं, देशों की प्रगति, वैश्विक व्यापार, स्टॉक मार्केट का छिन-पल बदलाव, तेल बाजार का उतार-चढ़ाव छाए रहते थे। इस बार जलसंकट शिखर पर है।
पहले ऐसा नहीं था, न तकनीक इतनी विकसित थी और न ऐसे बोरवेल थे। कुएं, बावली, तालाब, झील, बांध मुख्य जलस्रोत हुआ करते, जिनके समुचित रखरखाव, नियमित साफ-सफाई से ये हमेशा लबालब रहते। अब परिस्थितियां, विकट और एकदम भिन्न हैं।
गहरे बोरवेल ने हमारे प्राकृतिक जल बैंक का भरपूर दोहन किया, जिससे धरती तो प्यासी रही, भूमिगत जलस्तर भी चुकता रहा। वहीं उजड़ते जंगल, गिट्टियों में तब्दील होते पहाड़, नदियों से बेतहाशा रेत की निकासी ने घरेलू जलस्रोत ही नहीं, बल्कि नदियां, पोखर, तालाब, बांध सबको चपेट में ले लिया। यानी हम कहीं से भी, धरती की कोख को निर्जला करने से नहीं चूके।
लेकिन, ध्यान कभी जल संग्रह की ओर नहीं गया, न ही कोई ईमानदार पहल दिखी या हुई। नतीजा सामने है, बूंद-बूंद पानी का महत्व अब समझ आने लगा!
सच इतना भयावह कि सिंचाई और पेयजल दोनों ही बसंत के आगमन के साथ-साथ सूखने लगते हैं। वैज्ञानिक ²ष्टिकोण वर्तमान स्थिति को भले ही जलवायु परिवर्तन कहे, लेकिन ग्रामीण अंचलों की असल हकीकत किसी बड़े अभिशाप से कम नहीं।
21वीं सदी में पानी की कमी के चलते सामाजिक भेदभाव और जात-पात की तस्वीर शर्मनाक है। सबसे ज्यादा गरीब और मजदूर तबका पिसता है, जिसकी भोर, आधा दिन घड़ा भर पानी जुटाने में खत्म होती है तो दिन पेट की आग बुझाने, हाड़ तोड़ मेहनत में। मीलों दूर जाकर बूंद-बूंद पानी इकट्ठा कर, बड़ी मुश्किल से प्यास बुझाने लायक जुटा पाना, गरीबों की आधुनिक युग की कड़वी सच्चाई है।
मध्यप्रदेश में अनूपपुर के चोंडी गांव की इसी 24 अप्रैल की घटना बेहद झकझोरने वाली है। 14 वर्ष का खेमचंद केवट प्यास बुझाने रोज की तरह घर के लगभग सूखे कुएं पर गया चुल्लू भर पानी की खातिर, नीचे उतरा, तभी अचानक ऊपर से मिट्टी धसक गई। वह प्यासा ही कुएं में जिंदा दफन हो गया। बड़ी मुश्किल से 32 घंटे बाद शव निकल पाया।
जान हथेली पर रखकर पानी जुटाना गरीबों की नीयति बन चुकी है। संपन्न लोग ऐन-केन-प्रकारेण व्यवस्था कर लेते हैं। इससे अमीर-गरीब के बीच की खाई और कटुता बढ़ी है। हर साल लगभग 7-8 महीने पानी का घनघोर संकट कई प्रांतों में रहता है।
जनसंख्या बढ़ने के साथ कल-कारखानों, उद्योगों और पशुपालन को मिले बढ़ावे के बीच जल संरक्षण की ओर ध्यान नहीं गया। नतीजन, भूगर्भीय जलस्तर गिरता गया। समस्या पानी ही नहीं, वरन शुद्ध पानी भी है।
दुनिया में करीब पौने दो अरब लोगों को शुद्ध पानी नहीं मिल रहा। अब सोचना ही होगा, क्योंकि पानी को हम किसी कल कारखाने में नहीं बना सकते। प्रकृति प्रदत्त जल यानी वर्षाजल का संरक्षण करना होगा, इसके लिए चेतना ही होगा।
चीन, सिंगापुर, इजरायल, आस्ट्रेलिया सहित कई देशों में ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम’ पर काफी कुछ किया जा रहा है। सिंगापुर में यही पानी के मुख्य स्रोत बन गए हैं। भारत में इस बावत जन जागरूकता की जरूरत है। तुरंत जागना होगा, क्यों न इसी बरसात जल प्रबंधन के इंतजाम करें।
घर-घर में पानी के महत्व को न केवल समझाने की मुहिम चले, बल्कि मामूली प्रयासों से गांव, बस्ती और मुहल्ले और खेतों में भूमिगत जलस्रोत बढ़ाने की वैज्ञानिक विधि से आसान कवायद शुरू हो।
जल संग्रहण का महत्व बताकर ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम’ अनिवार्य की जाए। नगर निगम, नगर पालिका, पंचायतें, कृषि, जलसंसाधन और समाज कल्याण से जुड़े विभाग प्रभावी पहल करें जो कागजों में न होकर वास्तविक हो। लोगों को न केवल जागरूक किया जाए, बल्कि अपने लिए, अपनी कृषि के लिए, खुद ही अपना पानी जमाकर, जलबैंक की अवधारणा को विकसित कर इसके लाभ बताए जाएं।
मामूली खर्च पर हर घर और खेतों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाकर, भूजल स्तर बढ़ाने का महायज्ञ शुरू किया जाए। क्षेत्र की खाली जमीन, सड़कों के किनारे, स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, कल-कारखानों में सरकार अनिवार्यत: शुरुआत करे। इसके अलावा और कुछ नहीं तो, एक दो बारिश के बाद घर की अच्छे से साफ की हुई छत से निकलने वाले वर्षाजल को चंद फुट पाइप के जरिए सीधे कुएं में भेजकर भी रिचार्ज किया जा सकता है।
जिस तरह ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत खुले में शौच को प्रतिबंधित किया गया, उसी तर्ज पर ‘वर्षा जल संग्रहण’ को जनहित में अनिवार्य करने के, बड़े और आश्चर्यजनक परिणाम दिखने लगेंगे। बस जरूरत है, सरकारी इच्छा शक्ति और ईमानदार प्रयासों की।
अभी समय है, क्यों न इसी बरसात हो इसकी शुरुआत। घर पर सहज, सुलभ और आसान सा एक ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम’ बनाएं, जिससे आपके जलबैंक में वृद्धि हो और प्राकृतिक जल पहले की तरह फिर सुलभता से, अनवरत मिल सके।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं)
–आईएएनएस
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