बुद्ध-काल में उज्जैन अवन्ति-दक्षिणापथ का सर्वश्रेष्ठ समृद्धशाली नगर था। अवन्ति जनपद की राजधानी भी यही नगर था। उस समय इसका नाम उज्जयिनी था। चण्डप्रद्योत नामक राजा यहाँ राज्य करता था। उसी के समय में बौद्ध धर्म उज्जैन में पहुँचा और बारहवीं शताब्दी के अन्त तक बौद्ध-परम्परा वहाँ विद्यमान रही। अवन्ति जनपद का प्रमुख नगर होने के कारण, उज्जैन को अवन्तिपुर भी कहा जाता था। अवन्ति जनपद का नाम पीछे मालवा हो गया था। यह नाम पंजाब की ओर से मालवगणों के आने से पड़ा था। दक्षिणापथ के नगरों में विदिशा, गोनर्द, उज्जयिनी (उज्जैन) और माहिष्मति बहुत प्रसिद्ध थे। तेल-प्रणाली तथा कुररघर बड़े कस्बे थे। इन सबमें क्षिप्रा तट पर अवस्थित उज्जयिनी एक महत्वपूर्ण नगर था।
उज्जैन के राजा चण्डप्रद्योत ने अपने पुरोहित-पुत्र महा कात्यायन को सात व्यक्तियों के साथ भगवान बुद्ध को उज्जैन लाने के लिये भेजा था। ये आठ व्यक्ति तथागत के पास जाकर भिक्षु हो गये थे। जब महा कात्यायन ने उज्जैन की श्रीसम्पन्नता का वर्णन करते हुए तथागत से उज्जैन आने की प्रार्थना की थी, तब तथागत ने उन्हें ही अपने साथियों के साथ बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ उज्जैन भेजा था। महा कात्यायन तेलप्रणाली नगर से होकर उज्जैन पहुँचे थे। इसी तेलप्रणाली निगम की श्रेष्ठि-कन्या ने अपने सिर के सुन्दर केशों को काट और बेचकर उसकी आय से इन आठ भिक्षुओं को भोजन-दान किया था। इस घटना को सुन, महाराज चण्डप्रद्योत ने उस श्रेष्ठि-कन्या को अपनी पटरानी बनाया था, जिससे गोपालकुमार नामक राजकुमार का जन्म हुआ था, जो चण्डप्रद्योत के बाद उज्जैन के राज-सिंहासन पर बैठा था। पुत्र के नाम पर ही रानी का नाम भी गोपालमाता देवी पड़ गया था। इस देवी के गर्भ से वासुलदत्ता (संस्कृत नाम ‘वासवदत्ता’) नामक राजकुमारी उत्पन्न हुई थी, जिसे चण्डप्रद्योत का कैदी कौशाम्बी नरेश उदयन भगा ले गया था और अपनी पटरानी बनाया था, जो श्यामावती और मागन्दिय की मृत्यु के पश्चात् उदयन की परमप्रिया महिषी थी। वह बचपन से ही भगवान् बुद्ध की भक्त थी।
गोपालमाता की महा कात्यायन स्थविर पर बड़ी श्रद्धा थी। उसने उनके लिये राजकीय उद्यान कांचनवन में एक सुन्दर बौद्ध विहार का निर्माण करवाया था और भिक्षु संघ को दान किया था। महा कात्यायन स्थविर पर उज्जैन नगरवासियों की भी श्रद्धा बढ़ती ही गयी और शीघ्र ही उज्जैन काषाय वस्त्र से प्रकाशित हो उठा (सकलनगरं एककासावपज्जोतं इसिवातपरिवातं-अहोसि-अंगुत्तरअट्ठकथा)।
महा कात्यायन स्थविर ने मथुरा से लेकर उज्जैन तक घूम-घूमकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। कुछ दिनों तक कुररघर के पर्वतीय प्रपात वाले विहार में भी वास किया था, ऐसे ही मक्करकट की आरण्य कुटी में। किन्तु अधिक समय उन्होंने उज्जैन के कांचनवन विहार में ही व्यतीत किया था। अवन्ती के वेलुकुण्ड नगर से प्रव्रजित कुमारपुत्र, वेणुग्राम के ऋषिदत्त (इसिदत्त) तथा कुररधर के सोणकुटिकण्ण महा कात्यायन के प्रसिद्ध भिक्षु-शिष्य थे। प्रसिद्ध गणिका प्रज्ञावती, जो पीछे भिक्षुणी होकर अभयमाता नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी, उज्जैन की ही रहने वाली थी। उसके पुत्र अभय भी उस समय के एक प्रसिद्ध भिक्षु थे। भिक्षुणी अभया भी उज्जैन नगर की ही थी। उज्जैन की ऋषिदासी जीवन्मुक्ता परम साधिका भिक्षुणी थी, जिसकी 48 गाथाएँ आज भी थेरीगाथा में विद्यमान हैं, जिन्हें पढ़कर धर्म-संवेग एवं कर्म-सिद्धांत का दार्शनिक ज्ञान होता था। कात्यायनी और काली उपासिकाएँ अवन्ती जनपद की ही बुद्धकालीन विभूतियाँ थीं, जिनके नाम बौद्ध-जगत् में बड़ी श्रद्धा से लिये जाते हैं।
भगवान् बुद्ध ने महा कात्यायन को श्रेष्ठकृत्व (एतदग्र) की उपाधि संक्षिप्त से कहे का विस्तार से अर्थ करने के लिये दी थी और सोणकुटिकण्ण को सुवक्ता (कल्याणवाक्करण) होने के लिये। इसी प्रकार कुररधर के सोणकुटिकण्ण भिक्षु की माता भिक्षुणी कात्यायनी को अतीव श्रद्धालु होने के लिये तथा काली उपासिका को अनुश्रव श्रद्धालु होने के लिये।
विनयपिटक के चर्मस्कन्धक (5, 3, 1) में आया है कि महाकात्यायन स्थविर ने तीन वर्ष के भीतर अवन्ती में बड़ी कठिनाई से दस भिक्षुओं को एकत्र किया था। उनके सामने कुछ सांघिक नियमों की कड़ाई बाधक थी। तब उन्होंने सोणकुटिकण्ण को तथागत के पास यह कहकर भेजा था- सोण, जाओ, भगवान् के चरणों में वन्दना करना और कहना- भन्ते अवन्ती दक्षिणा-पथ में बहुत कम भिक्षु हैं। तीन वर्ष व्यतीत कर बड़ी कठिनाई से दस भिक्षु एकत्रित कर मुझे उपसम्पदा मिली। अच्छा हो, भगवान् अवन्ति दक्षिणा-पथ में (1) थोड़े भिक्षुओं के संघ से उपसम्पदा की अनुज्ञा दें। (2) अवन्ति दक्षिणा-पथ में, भन्ते, भूमि काली, कड़ी, गोखुरु (गोकंटकों) से भरी है। अच्छा हो, भगवान अवन्ति दक्षिणा-पथ में भिक्षु संघ को उपानह पहनने की अनुज्ञा दें। (3) अवन्ति दक्षिणा-पथ में, भन्ते, मनुष्य स्नान के प्रेमी, उदक से शुद्धि मानने वाले हैं। अच्छा हो, भन्ते, अवन्ति दक्षिणा-पथ में नित्य स्नान की अनुज्ञा दें। (4) अवन्ति दक्षिणा-पथ में, भन्ते, चर्ममय आस्तरण (बिछौने) होते हैं, जैसे मेष-चर्म, अजा-चर्म, मृग-चर्म। कृपया, भन्ते, चर्ममय आस्तरण की अनुज्ञा दें। (5) और भन्ते, अवन्ती दक्षिणा-पथ के भिक्षुओं को दूसरे भिक्षुओं को देने के लिये मिले चीवरों को रखने की अनुज्ञा दें।
सोणकुटिकण्ण द्वारा महा कात्यायन की प्रार्थना सुनकर भगवान् बुद्ध ने उप सम्पदा के लिये प्रत्यन्त जनपदों में दस के स्थान पर पाँच भिक्षुओं की अनुमति दे दी थी और शेष सभी बातों को स्वीकार कर लिया था।
भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण (ई. पूर्व 543) के पश्चात् जब अस्थियों का विभाजन हो गया था, तब उज्जैन नरेश को वहाँ के बौद्धों के लिये तथागत की आसनी तथा अस्तरण प्राप्त हुए थे। (निसीदनं अवन्तिपुरे रट्ठे अत्थरणं तदा-बुद्धबंसो 28)। इनको निधान कर उज्जैन में एक विशाल स्तूप का निर्माण उसी वर्ष हुआ था।
अशोक के समय (ई. पूर्व 272) में उज्जैन में बौद्ध धर्म का बहुत विकास हुआ था। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा का जन्म उज्जैन में ही हुआ था, जिन्होंने लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। अशोक की विदिशा-कुमारी देवी नामक रानी द्वारा साँची में निर्मित विहारों एवं स्तूपों को देखकर तथा अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ किये हुए प्रयत्नों से भी उज्जैन में बौद्ध धर्म के स्वरूप का अनुमान लगाया जा सकता है।
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में उज्जैन का भिक्षु-संघ बड़ा विशाल था, जिसके संघनायक संघरक्षित स्थविर थे, जो बहुत-से भिक्षुओं के साथ ई. पूर्व 135 में लंका की राजधानी अनुराधापुर में सुवर्णमाली चैत्य में अस्थियों के स्थापन-समारोह में सम्मिलित होने उज्जैन से वहाँ गये थे। कनिष्क काल में भी उज्जैन में बौद्ध धर्म की अच्छी अवस्था थी। उज्जैन के बौद्ध राजा महाक्षत्रप रुद्रसिंह तथा रुद्रसेन चष्टन की मुद्राएँ वैशाली (बिहार) की खुदाई में प्राप्त हुई है, जिनका राज्य काल ईसा की तीसरी शताब्दी का प्रारंभिक भाग था। चौथी शताब्दी के प्रारंभ में उज्जैन नरेश ने अपने पुत्र दन्तकुमार का विवाह कलिंग के राजा गुहशीव की पुत्री हेममाला के साथ किया था। ये दोनों बौद्ध धर्मावलम्बी थे। दन्तकुमार और हेममाला ने ही ई. सन् 312 में जगन्नाथपुरी के मन्दिर में सुरक्षित भगवान् बुद्ध की दन्त धातु (दाठ धातु) को लंका पहुँचाया था, जो सम्प्रति केंडी के प्रसिद्ध दलदा विहार में हैं। लंकावासियों को उज्जैन की यह महादेन है कि उज्जयिनी सन्तान महेन्द्र और संघमित्रा ने वहाँ बौद्ध धर्म पहुँचाया था और दन्तकुमार ने तथागत का पूजनीय दाँत।
छठी शताब्दी के आरंभ में उज्जैन के राजकुमार उपशून्य ने भिक्षु-दीक्षा ले ली थी और वे धर्म प्रचारार्थ उत्तर-पश्चिम के रास्ते से चीन गये थे। उन्होंने पूर्वी देही की राजधानी (538-40) ये: में रहकर तीन बौद्ध-ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया था, फिर वे नानकिंग चले गये थे और ग्रन्थों के अनुवाद-कार्य में लगे रहे। इस प्रकार हम छठी शताब्दी के प्रारम्भ तक उज्जैन के राजवंश में भी बौद्ध धर्म विद्यमान पाते हैं, किन्तु चीनी यात्री हुएन्सांग (629-645) जब उज्जैन पहुँचा तो उसने देखा कि वहाँ 50 बौद्ध विहार थे, जो प्राय: उजाड़ थे। दो-चार ही ऐसे थे, जिनकी अवस्था कुछ अच्छी थी। लगभग 300 भिक्षु उज्जैन में उस समय रहते थे। राजा ब्राह्मण था। वह बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं था। नगर से थोड़ी दूर पर एक स्तूप था।
आठवीं शताब्दी में उज्जैन पर वज्रयान की सिद्ध परम्परा का प्रभाव पड़ गया था। दसवीं शताब्दी के तेरहवें सिद्ध तन्तिपा उज्जैन के ही रहने वाले थे। इनका जन्म कोरी वंश में हुआ था। ये जालन्धरपाद के शिष्य थे। तिब्बती तन् जूर की पोथियों में चतुर्योग भावना नामक ग्रंथ इन्हीं का है। इन्होंने सिद्ध कण्ह्पा से भी उपदेश ग्रहण किया था। तन्तिपा के पीछे सिद्ध विचारों से प्रभावित राजा भर्तृहरि हुए, जो उज्जैन के प्रसिद्ध एवं विद्वान नरेश थे। तिब्बत के सोलहवीं शताब्दी के महाविद्वान् लामा कुन्गा निंपो (जन्म 1573) ने भर्तृहरि के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि वे सिद्ध जालन्धरपाद के शिष्य थे। जालन्धरपाद का वर्णन करते हुए लामा ने लिखा है- ‘मालवा देश में भर्तृहरि नामक राजा था। उसके पास 18,000 अश्व थे और वह एक विस्तृत प्रदेश पर शासन करता था। उसके एक सहस्र स्त्रियाँ थीं। आचार्य जालन्धरपाद समय को उपयुक्त जानकर उसे नगर से बाहर ले गये और अदभुत चमत्कार दिखलाये। तब राजा ने शिष्यत्व की प्रार्थना की। उन्होंने उत्तर दिया- तुम अपना राज्य त्यागो और अवधूत (धुतांग) ग्रहण करो। तत्पश्चात् मैं तुम्हें शिक्षा दूँगा। राजा ने सब कुछ त्याग दिया; वह आचार्य के पास गया और उपदेश ग्रहण किया। वह शीघ्र ही योगेश्वर हो गया। अन्त में वह 500 व्यक्तियों के साथ स्वर्ग को चला गया।”
जालन्धरपाद को ही आदिनाथ भी कहा जाता है। यही गौरख नाथ के गुरु थे और गोरखनाथ मत्स्येन्द्रनाथ के। इस प्रकार नाथ परम्परा के अनुसार आज भी सिद्ध बौद्धों की परम्परा विद्यमान है। उज्जैन में भर्तृहरि-गुहा तथा योगश्वर टेकरी को देखते हुए सिद्ध भर्तृहरि तथा बौद्ध परम्परा का स्मरण हो आता है। सिद्धों से सम्बन्धित होने के ही कारण सम्प्रति बहुत-से तिब्बती ग्रन्थों में उज्जैन का बौद्ध तीर्थ के रूप में वर्णन किया गया है।
ऊपर के वर्णनों से विदित है कि उज्जैन बुद्ध काल से बारहवीं शताब्दी तक किस प्रकार बौद्धधर्म का केन्द्र बना रहा। हम देखते हैं कि उज्जैन की जनता ने धर्म कार्यों में बहुत धन व्यय किया था और बौद्ध धर्म के प्रचार के निमित्त महान त्याग किया था। साँची के स्तूपों एवं विहारों के निर्माण में सबसे अधिक योगदान उज्जैन की जनता का ही प्राप्त हुआ था। साँची में जिन दायकों के नाम उत्कीर्ण मिले हैं, उनमें उज्जैन के 36, विदिशा के 18, माहिष्मती के 4 और कुररधर के 26 हैं। उज्जैन के दायकों ने जब साँची में इतनी अधिक संख्या में दान किया था, तो उन्होंने उज्जैन में धार्मिक कार्य न किया हो, यह सम्भव नहीं है। सम्प्रति उज्जैन के पास की वेश्या टेकरी नामक स्तूप, मकोड़िया स्टेशन के बाँयीं ओर के नष्टावशेष, महाकाल मन्दिर के पास के खंडित स्तूप, योगेश्वर-टेकरी की प्राचीन ईंटें, भर्तृहरि तथा प्राप्त मूर्तियाँ उन्हीं दानवीरों के स्मृति-चिन्ह हैं।
प्राचीन उज्जैन नगर के नष्टावशेष आधुनिक नगर के पास ही क्षिप्रा नदी के दायें किनारे भर्तृहरि-गुहा से लेकर गढ़कालिका के आसपास चारों ओर तक प्राप्त हुए हैं। उज्जैन की खुदाई में मिली मुद्राओं में से अनेक पर बोधिवृ्क्ष बने हुए हैं। उन पर ‘उज्जेनीय’ लिखा हुआ भी मिला है। प्राचीन नगर का आरम्भिक तल काफी गहराई पर मिला है। पानी के विशाल मटके तथा अनेक भाण्ड प्राप्त हो चुके हैं। उत्खनन-कार्य के पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाने पर उज्जैन के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ेगा।
हम यहाँ भर्तृहरि-गुहा तथा वेश्या टेकरी के स्तूपों की ओर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। भर्तृहरि-गुहा प्राचीन बौद्ध-विहार है। इसके भीतर खम्बों पर जो मूर्तियाँ बनी हैं, वे वज्रयान गर्भित महायान से सम्बन्धित हैं। पुरुष-स्त्री की प्रतिमाएँ भुवनेश्वर जैसी हैं। गुहा के भीतर बोधिसत्व की एक सुन्दर मूर्ति है। अन्य मूर्तियाँ भी रही होंगी, जो गुहा में रहने वाले श्रमणों द्वारा हटा दी गयी होंगी। वेश्या टेकरी के स्तूपों का निर्माण और उनकी प्राचीन ईंटों को देखकर ऐसा जान पड़ता है कि बुद्ध परिनिर्वाण के बाद इनका निर्माण हुआ था और कांचनवन विहार भी यहीं रहा होगा। उज्जैन नगर के मध्य स्थित योगेश्वर टेकरी किसी प्राचीन स्तूप या विहार का ही नष्टावशेष जान पड़ती है।
— भिक्षु धर्मरक्षित
Follow @JansamacharNews