एनएसजी पर नाकामी : विफलता कम, जल्दबाजी ज्यादा

अब इसे कूटनीतिक विफलता कहें या कमजोर तैयारी, भारत फिलहाल ‘न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप’ यानी एनएसजी में शामिल नहीं हो पाया। इसको लेकर जहां अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को करारा झटका लगा, तय है कि संसद का मानसून सत्र इसकी भेंट चढ़ेगा। कितना चढ़ेगा, यह वक्त बताएगा।

आगे किस पर कितना भरोसा करना सही होगा, यह विमर्श का विषय है। फिलहाल इस मुद्दे पर चुप रहकर, जमीनी तैयारी करना ही बेहतर होगा। एनएसजी के उद्देश्य और जरूरतें ही काफी कुछ साफ कर देते हैं, तब भी भारत ने जल्दबाजी की, नतीजा सामने है। लेकिन महत्वपूर्ण यह भी कि भारत ने एनएसजी की सदस्यता के लिए अपनी ओर से पहल नहीं की थी। बल्कि कहें कि अमेरिका ने उकसाया और साथ देने का भरोसा जताया।

सबको पता है कि अमेरिका, व्यापारी है। वह एक सीमा तक साथ देगा, उससे ज्यादा नहीं। जहां तक भारत के लिए समर्थन का सवाल है, वे देश समर्थन करेंगे जिनको इस बात की संभावना दिखेगी कि भारत उनके परमाणु संयंत्रों की बिक्री का, कितना बड़ा बाजार बनेगा।

कहने की जरूरत नहीं कि किसका, कितना हित जुड़ा है और कौन कितना साथ देगा। दो बातें विशेष महत्व की हैं। पहली यह कि इसकी पहल 1974 में तब हुई, जब भारत ने पोखरन में पहला परमाणु परीक्षण किया था और दूसरी यह कि एनएसजी उन देशों का समूह है जो परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर करते ही, अपने आप सदस्य मान लिया जाता है।

जाहिर है, एनएसजी के गठन की तात्कालिक जरूरत, भारत का पर कतरना था। अब जबकि सारा कुछ एक क्लिक पर उपलब्ध है, एनएसजी की वेबसाइट से ज्ञात दिशा निर्देश काफी कुछ साफ कर देते हैं जो परमाणु अप्रसार की विभिन्न संधियों के अनुकूल हैं।

इनमें परमाणु अप्रसार संधि, साउथ पैसिफिक न्यूक्लियिर फ्री जोन ट्रीटी, पलिंदाबा समझौता यानी अफ्रीकन न्यूक्लियर वीपन फ्री जोन ट्रीटी, ट्रीटी फॉर द प्रोहिबिशन ऑफ न्यूक्लियर वीपंस इन लैटिन अमेरिका, बैंकॉक समझौता यानी ट्रीटी ऑन द साउथ-ईस्ट एशिया न्यूक्लियर वेपन फी जोन तथा सेमिपैलेटिंस्क समझौता अर्थात द सेंट्रल एशियन न्यूक्लियर वीपन फी जोन ट्रीटी शामिल हैं।

इस समूह में 48 देश शामिल हैं तथा 1994 में स्वीकारे गए दिशा निर्देशों के अनुसार कोई भी सप्लायर उसी समय, ऐसे उपकरणों के हस्तांतरण की स्वीकृति दे सकेगा, जब वो पूर्ण संतुष्ट हो जाए कि ऐसा करने परए परमाणु हथियारों का प्रसार नहीं होगा।

लेकिन इन दिशा निर्देशों का क्रियान्वयन हर सदस्य देश, अपने राष्ट्रीय कानून और वहां की कार्यप्रणाली के मुताबिक ही करेगा। इस समूह में सर्वसम्मत फैसला होता है जो इसकी कार्य योजना बैठकों में लिए जाते हैं, जो हर वर्ष होती है।

इस बार 24 जून को सोल में विशेष सत्र बुलाया गया। उसके पहले 23 जून को ताशकंद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के बाद ही यह साफ हो गया था कि चीन रोड़ा बनेगा। माहौल, पहले ही दिखने लगा कि चीन अड़ंगा लगाएगा। चीन ने भारत का कब साथ दिया? ऐसे में हमें चीनी राष्ट्रपति के समक्ष दावे पर विचार करने की बात कहने से बचना था।

जगजाहिर है कि चीन, पाकिस्तान को भी इस समूह का सदस्य बनाए जाने का पक्षधर है। जब भारत, चीन के नेतृत्व वाले संगठन, ‘शंघाई सहयोग परिषद’ की सदस्यता ले रहा था, तब भी एनएसजी में भारत के प्रवेश पर अड़ंगा चीन ने ही लगाया था। भविष्य में यह सब ध्यान में रखना होगा।

भारत के नजरिए पर भी ध्यान देना होगा। भारत ने शुरू से ही परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए, क्योंकि उसका मानना है कि ऐसा करने से अपने परमाणु हथियारों से हाथ धोना पड़ेगा। अपवाद स्वरूप 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की निजी कोशिशों की परिणिति थी तथा उन्होंने ही सदस्य देशों को इसके लिए राजी किया था।

अब दूसरी बार ऐसा ही करने का मतलब यह हुआ कि इस संगठन के मूल स्वरूप को ही बदलना है। भारत की इस बात में भले ही दम हो कि बिना एनपीटी पर हस्ताक्षर किए, वो परमाणु कार्यक्रम अप्रसार की हर कसौटी पर खरा उतरा है। लेकिन इसके लिए एनएसजी का स्वरूप बदलना कितना उचित होगा, वह भी तब, जब चीन इस पर हस्ताक्षर के बावजूद, कई मौकों पर धड़ल्ले से शर्तो को धता बताता आया है।

जगजाहिर है कि पाकिस्तान व उत्तर कोरिया के परमाणु हथियारों के पीछे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से चीन ही होता है। इतना सबके बावजूद इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि अधिकांश देश भारत के समर्थन में खुलकर आए थे। उसमें भी अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे मजबूत देशों का शामिल होना बताता है कि विश्व समुदाय में भारत की हैसियत काफी सम्मानजनक है।

लेकिन इस बात का मलाल जरूर है कि सही ढंग से परिस्थितियों का आकलन पहले ही किया गया होता तो इस बड़ी किरकिरी से बचा जा सकता था। हां, जरूरत इस बात की है कि भारत को विश्व समुदाय के किसी भी समूह में शामिल होने के लिए ऐसी जल्दबाजी आगे नहीं दिखानी चाहिए।

नि:संदेह भारत को विश्व समुदाय में तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जा रहा है, जिससे दबाव और सम्मान के साथ छवि भी बदली है। जरूरत इस बात की है कि भविष्य में कोई भी कदम बजाय जल्दबाजी के, काफी सोच-विचार कर, रणनीति अपनाकर, अनुकूल समय पर उठाया जाए।
==ऋतुपर्ण दवे

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं)