medicinal plants

औषधीय पौधों के संरक्षण और खेती को हिमाचल में बढ़ावा

औषधीय पौधों (medicinal plants) एवं सम्बन्धित गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए राज्य औषधीय पादप बोर्ड प्रदेश में आयुष विभाग के तत्वावधान में कार्य कर रहा है।
इसके अन्तर्गत आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण के लिए आर्थिक आवश्यकताओं और औषधीय पौधों की सुगम उपलब्धता पर बल दिया जा रहा है।
आयुष प्रणालियों की राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर पहुंच और स्वीकार्यता, गुणवत्तापूर्ण औषधीय पौधों पर आधारित कच्चे माल की निर्बाध उपलब्धता पर निर्भर है, जिससे औषधीय पौधों का व्यापार निरन्तर बढ़ रहा है।
हिमाचल  समृद्ध जैविक विविधता से सम्पन्न प्रदेश है। औषधीय पौधे (medicinal plants) स्वदेशी चिकित्सा पद्धति के लिए प्रमुख संसाधन हैं।
प्राकृतिक उत्पादों के प्रति लोगों की बढ़ती रूचि के परिणामस्वरूप औषधीय पौधों का अंतरराष्ट्रीय बाजार में महत्व बढ़ा है।
हिमाचल सरकार द्वारा औषधीय पौधों के संरक्षण को बढ़ावा देने और किसानों को इन पौधों की खेती करने और उनकी आय में वृद्धि हेतु प्रोत्साहित करने के लिए अनेक नीतियां तैयार कर कार्यान्वित की जा रही हैं।
औषधीय पौधों (medicinal plants)की खेती के लिए विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में किसानों को हिमाचल सरकार  वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है। हिमाचल प्रदेश को औषधीय पौधों के केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए, राज्य सरकार राष्ट्रीय आयुष मिशन के तहत काम कर रही है।
औषधीय पौधों (medicinal plants) की खेती के लिए विभिन्न किसान समूह बनाए गए हैं। वित्तीय सहायता का लाभ प्राप्त करने के लिए एक किसान समूह के पास कम से कम दो हेक्टेयर भूमि होनी चाहिए। एक किसान समूह में 15 किलोमीटर के दायरे में आने वाले तीन गांव शामिल हो सकते हैं।
औषधीय पौधों की खेती के लिए गिरवी रखी गई भूमि का भी उपयोग किया जा सकता है। योजना के अन्तर्गत जनवरी 2018 से अब तक औषधीय पौधों की खेती के लिए 318 किसानों को 99.68 लाख रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान की गई है।
राष्ट्रीय आयुष मिशन ने राज्य में औषधीय पौधों की खेती के लिए वर्ष 2019-20 में लगभग 128.94 लाख रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान की है। इसमें से 25 लाख रुपये एक आदर्श नर्सरी के लिए, 12.5 लाख रुपये दो छोटी नर्सरीज के लिए, 54.44 लाख रुपये अतीस, कुटकी, कुठ, शतावरी, स्टीविया और सर्पगंधा की खेती के लिए, 20 लाख रुपये ड्राईन्ग शेड एवं भण्डारण गोदाम के निर्माण हेतु और 17 लाख रुपये अन्य व्यय के लिए आवंटित किए गए हैं।
राज्य सरकार ने प्रदेश में औषधीय पौधों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए जिला मंडी के जोगिंदरनगर, जिला हमीरपुर के नेरी, जिला शिमला के रोहड़ू और जिला बिलासपुर के जंगल झलेड़ा में औषधीय उद्यान स्थापित किए हैं।
विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के अनुसार विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधे इन औषधीय उद्यानों में उगाए जा रहे हैं, जिनका उपयोग अनेक बीमारियों की विभिन्न दवाएं तैयार करने के लिए किया जा रहा है।
राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड, आयुष मंत्रालय, भारत सरकार ने जिला मण्डी स्थित भारतीय चिकित्सा प्रणाली अनुसंधान संस्थान जोगिंदरनगर में उत्तरी क्षेत्र क्षेत्रीय के सह-सुविधा केंद्र की स्थापना की है।
यह केंद्र पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश सहित छः पड़ोसी उत्तर भारतीय राज्यों में औषधीय पौधों की खेती और संरक्षण को बढ़ावा दे रहा है और राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड के कार्यों का प्रचार-प्रसार कर रहा है।
प्रदेशवासियों में औषधीय पौधों के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए प्रथम चरण में दो सप्ताह के लिए पौधरोपण अभियान ‘चरक वाटिका’ चलाया गया, जिसमें 1167 आयुर्वेदिक संस्थानों में चरक वाटिकाओं की स्थापना की गई और लगभग 11,526 पौधे लगाए गए। 7 जून, 2021 को चरक वाटिका अभियान के द्वितीय चरण का शुभारंभ किया गया है।
विविध जलवायु परिस्थितियों वाला राज्य होने के फलस्वरूप प्रदेश के चार कृषि-जलवायु क्षेत्रों में औषधीय पौधों की लगभग 640 प्रजातियां पाई जाती हैं।
जनजातीय जिले-किन्नौर, लाहौल-स्पीति, कुल्लू तथा कांगड़ा व शिमला जिलों के 2,500 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक उपयोगी औषधीय पौधों का उत्पादन होता है।
इनमें से कुछ में पतीस, बत्सनाभ, अतीस, ट्रेगन, किरमाला, रतनजोत, काला जीरा, केसर, सोमलता, जंगली हींग, चर्मा, खुरसानी अजवायन, पुष्कर मूल, हौवर, धोप, धामनी, नेचनी, नेरी, केजावो, धोप चरेलू, शार्गेर, गग्गर और बुरांश शामिल हैं।
प्रदेश सरकार औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए पारिस्थितिक क्षेत्र की नियमित निगरानी के अतिरिक्त, विभिन्न प्रजातियों की मूल पारिस्थितिकियों में स्थापना और संरक्षण और भारतीय हिमालयी क्षेत्र के अन्य भागों में इस पद्धति को अपनाने पर बल दे रही है। लोगों में जैव विविधता मूल्यों के बारे में विभिन्न माध्यमों से जागरूकता उत्पन्न की जा रही है और जैविक संसाधनों के संरक्षण एवं प्रबंधन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है।