ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) अनिल गुप्ता====हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद 9 जुलाई से अब तक कश्मीर में 27 स्कूलों को आग के हवाले किया जा चुका है।
सवाल यह है कि स्कूलों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है और क्यों केवल सरकारी स्कूल जलाए जा रहे हैं? यह सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाना है या फिर यह किसी बड़े कुटिल खेल का हिस्सा है?
कश्मीर में अलगाववादी और कट्टरपंथी समय को पीछे ले जाने पर तुले हुए हैं। उनकी कोशिश घाटी को फिर से मध्य युग में ले जाने की है जब मौलवी और काजियों की चलती थी और उन्हें कोई चुनौती नहीं मिलती थी। वे चाहते हैं कि कश्मीरी अनजान, बेहद कम शिक्षित और अविकिसित बने रहें ताकि आम लोग उनके साथ बने रहें और उस आधुनिक शिक्षा के लाभों से वंचित रहें जो विकास और आर्थिक तरक्की के लिए अनिवार्य है।
ज्ञान में शक्ति होती है। ज्ञान एक व्यक्ति को यह समझने में सक्षम बनाता है कि उसके लिए क्या उचित है। यही वह बात है जिससे चरमपंथ के स्वयंभू नेता डरते हैं और इसीलिए कश्मीरियों को ज्ञान से वंचित करना चाहते हैं।
1971 की जंग में करारी हार के बाद पाकिस्तान ने ‘भारत को हजार जगह से घाव देने’ की रणनीति के तहत चरमपंथ को हथियार बनाया।
घाटी में चरमपंथ पाकिस्तान द्वारा नियोजित, समर्थित और आर्थिक रूप से पोषित है। अलगाववादी, नरम अलगाववादी और कट्टरपंथियों को पाकिस्तान ने अपने चरमपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नियुक्त किया हुआ है। सूफी इस्लाम को हटाकर इसकी जगह कट्टर वहाबीवाद को लागू करना इसी रणनीति का हिस्सा है।
दुर्भाग्य से इस मसले की गंभीरता को समझने के बजाए घाटी में आरोप प्रत्यारोप हो रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला हुर्रियत नेतृत्व और सरकार को जिम्मेदार बता रहे हैं। अजब यह है कि हुर्रियत के जिन नेताओं को इन हरकतों के लिए जिम्मेदार कहा जा रहा है, वही सरकार को जिम्मेदार बता रहे हैं।
स्कूलों को जलाने पर मची हायतौबा का सीधा मकसद सरकार की आलोचना और उसे बदनाम करना लग रहा है। किसी ने इस मसले का समाधान नहीं सुझाया है।
अपने दिलों में यह सभी चाहते हैं कि मौजूदा स्थिति बनी रहे। क्योंकि, इनके खुद के बच्चे बिना किसी बाधा के अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। हाल ही में हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी की रिश्तेदार ने श्रीनगर में डीपीएस स्कूल में कड़ी सुरक्षा के बीच 10वीं की परीक्षा दी है। साफ है कि बीते तीन माह से स्कूलों को जबरन बंद कराने से हुर्रियत नेताओं और उनके परिवारों पर कोई असर नहीं पड़ा है।
पीड़ित आम कश्मीरी है।
स्कूलों को जलाने से चरमपंथ को बढ़ावा मिलेगा। बच्चे मजबूरन उन मदरसों में जाएंगे जिनका प्रबंधन विभिन्न चरमपंथी समूहों के पास है। यह मदरसे मासूमों के साफ मन मस्तिष्क में अपना चरमपंथ डालेंगे। यह आतंक के विश्वविद्यालयों की नर्सरी के रूप में काम करेंगे। किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती कि बच्चे मदरसे में धर्म की और आधुनिक शिक्षा ग्रहण करें। लेकिन, यहां यह नहीं हो रहा है। यहां जमीनी हकीकत कुछ और है।
केंद्र सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए 1000 करोड़ खर्च किए हैं। ताज्जुब होता है जानकर कि जम्मू एवं कश्मीर के मदरसों ने केंद्र की मदद लेने से मना कर दिया है।
कश्मीरियों को समझना होगा कि उन्हें योजनाबद्ध तरीके से मध्य युग में ढकेला जा रहा है। कश्मीर की सिविल सोसाइटी को इसके खिलाफ उठना होगा।
सिविल सोसाइटी कट्टरपंथियों और उनके समर्थकों की कुटिल चालों को आसानी से समझ सकती है। इसे आगे आना होगा और सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर चरमपंथियों की कोशिशों से लड़ना होगा और कश्मीर, खासकर इसके ग्रामीण हिस्सों में स्कूली शिक्षा को फिर से शुरू करने का प्रयास करना होगा।
(साउथ एशिया मॉनिटर/डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट साउथ एशिया मॉनीटर डाट ओआरजी के साथ विशेष व्यवस्था के तहत। ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) अनिल गुप्ता जम्मू स्थित राजनीतिक टिप्पणीकार और सुरक्षा विशेषज्ञ हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)–आईएएनएस
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