ऋतुपर्ण दवे=====खाने के निवाले के साथ भी जहर का व्यापार? लीजिए, अब ब्रेड भी खतरनाक हो गई! इसके खाने से कैंसर के खतरे का खुलासा हुआ है! अक्सर भारत में ही खाने-पीने की चीजों को लेकर इस तरह के खुलासे ज्यादा होते हैं? निश्चित रूप से देश में अब इस पर बड़ी बहस होनी चाहिए।
हो सकता है यह सुनने में अटपटा लगे, लेकिन हकीकत यही है कि देश में 2011 से पहले कच्चे खाद्य पदार्थो की जांच का कोई नियम नहीं था। इसी कारण मिलावटखोरों की चांदी रही और मनमानी का रवैया, तब भी था और अब भी बना हुआ है। हालांकि ‘भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकार’ यानी एफएसएसएआई ने 2011 में नियम बनाया और तय हुआ कि कच्चे माल की भी जांच की जाएगी, एक सूची तैयार होगी जिससे ये पता चल सके कि कहां पर खतरनाक रसायन, खुद-ब-खुद बन सकते हैं और ये किस खाद्य पदार्थ से बनते हैं। ऐसे परीक्षण हर पांच साल में किए किए जाएंगे। लेकिन ऐसा लगता है कि यह कानून अभी अपनी शैशव अवस्था में है, इसे और कठोर बनाकर मिलावट के विरुद्ध, मृत्युदण्ड तुल्य अपराध की श्रेणी में लाया जाएगा, तभी देश के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ रुकेगा।
ब्रेड में कैंसर पैदा करने वाले कथित संभावित रसायन के मिलने से लोगों में जबरदस्त दहशत है। फिलहाल सारे मामले दिल्ली के हैं। जब राष्ट्रीय राजधानी में बिकने वाले नामी ब्रान्डों के ये हाल हैं तो पूरे देश में क्या स्थिति होगी, कहने की जरूरत नहीं।
सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनवायरमेण्ट यानी सीएसई की पॉल्यूशन मॉनीटरिंग लैबोरेटरी (पीएमएल) ने अपनी जांच में पाया कि दिल्ली में बिकने वाले ब्रेड, पाव, बन, सफेद ब्रेड, तैयार पिज्जा और बर्गर ब्रेड के सैंपलों की जांच में 84 प्रतिशत में पोटेशियम ब्रोमेट और पोटेशियम आयोडेट मिला जो कई दूसरे देशों में खतरानाक घोषित कर प्रतिबंधित हो चुका है। इसे लोकस्वास्थ्य के लिए खतरा बताते हुए दावा किया गया है कि एक रसायन बी2 श्रेणी का कार्सिनोजेन है जबकि दूसरे से थायराइड का विकार बन सकता है।
सीएसआई की ओर से यह भी दावा किया गया कि उसने पोटेशयम ब्रोमेट और आयोडेट की मौजूदगी की जांच तीसरी और स्वतंत्र जगह से खुद कराई ताकि अपनी जांच पर भरोसा हो सके, वहां भी 75 प्रतिशत से ज्यादा मामले पॉजिटिव आए। अब सीएसई ने एफएसएसएआई से इनके इस्तेमाल पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की मांग की है। कुछ इसी अंदाज में घर-घर रसोई में जगह बना चुकी दो मिनट में झटपट मैगी नूडल्स में भी बीते वर्ष जून में खतरनाक तत्व एमएसजी और लेड की पायी गयी अधिक मात्रा को शरीर के लिए खतरनाक कहते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। उप्र के बाराबंकी से शुरू मामला, देश के कई राज्यों में पहुंचा और मैगी के बुरे दिन आ गए। 5 जून 2015 को ‘भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकार’ ने प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन उसी वर्ष अगस्त में बंबई हाईकोर्ट ने कुछ शर्तो के साथ मैगी से पाबंदी हटाई, तब 9 नवंबर को दोबारा बाजार में उतारा गया।
देश में खाद्य वस्तुओं में मिलावट, मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है। खाने-पीने की चीजें बिल्कुल सुरक्षित नहीं हैं। बीते वर्ष मुंबई में 64 फीसद खुला खाने का तेल मिलावटी पाया गया था। बड़ौदा में एक विश्वविद्यालय की जांच में दाल और सब्जियों के सैंपल में आर्सेनिक मिला था। उत्तर प्रदेश में एक जांच में 28 प्रतिशत अंडों में ई-कोलाई बैक्टीरिया पाया गया था। हद तो तब हो गई जब देश भर में लगभग 1700 दूध के नमूनों में 69 प्रतिशत, भारतीय मानक के हिसाब से सुरक्षित नहीं थे। अधिक मुनाफे के लिए लौकी और खीरा सहित तमाम सब्जियों का रातों रात आकार और वजन बढ़ाने, ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का सहारा लिया जा रहा है। सब्जियों के विटामिन्स तो खत्म होते ही हैं, लीवर और किडनी को भी ऑक्सीटोसिन प्रभावित करते हैं। नकली घी, नकली मावा, नकली छेना, मिलावटी खाद्य तेल, इस सफाई से बनाया जाता है कि सर्वसाधारण के लिए पहचानना मुश्किल है।
कई फलों को पकाने, स्वास्थ्य के लिए खतरनाक रसायनों का उपोयग एकदम आम हो गया है। आम पकाने के कैल्सियम कार्बाइड का उपयोग शरीर के लिए बेहद नुकसानदेह सिद्ध हो चुका है। इसी तरह पहले केला भी पकता था, अब तो और भी खतरनाक तकनीक अपनाई जाकर 48 घण्टों में पका लिया जाता है। पेस्टीसाइड की दुकानों में मिलने वाले प्लांट ग्रोथ रेगुलेटरों जो इथरेल या इथीगोल्ड या दूसरे कई नामों से भी मिलते हैं, धड़ल्ले से उपोयग किए जाते हैं।
टबों में पानी भरकर उक्त रसायन मिलाया जाता है, उसमें केले डुबोये जाते हैं फिर एल्युमीनियम शीट से ढककर चैम्बर बनाते हैं और एक निश्चित तापमान से नियंत्रित करते हैं और 48 घंटों में केला पक जाता है, छिलका हरा रहता है। इसमें न कैल्सियम कार्बाइड जैसी बू आती है न ही काला पड़ता है। ऐसे ही पपीते भी पकते हैं। कई जगह सब्जियों को हरा दिखाने, खतरनाक रसायनों के उपयोग की बात भी सामने आई है। ये सब मानव शरीर के विभिन्न अंगों पर बुरा प्रभाव डालते हैं।
लेकिन सवाल फिर वही कि भारत में ही खाने-पीने की चीजों में जब-तब मिलावट का खुलासा क्या बड़ी चिन्ता की बात नहीं? वैसे भी देश में कुपोषण की स्थिति कैसी है, सबको पता है। पौष्टिक चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। गरीबों का सबसे पौष्टिक निवाला, दाल, सातवें आसमान पर है। अब तो हद ही हो गई क्योंकि मिलावट और जहर के घेरे में आम और खास की पसंद और सर्वसुलभ, ब्रेड और उसके उत्पाद, बीमारियों का न्यौता बन गए हैं। इंसान खाएगा क्या?
सवाल फिर वही कि भारत में क्या गरीब, क्या अमीर, सबके निवालों पर ही मिलावट या चटखारे बढ़ाने या जल्द पकाने के लिए प्रतिबंधित रसायनों पर रोक लगाने, कोई तय दिशा निर्देश नहीं है तो ये रुकेगा कैसे? कानून भी ऐसे जो कई विभागों की आपस में गुत्थमगुत्थी और गेंद एक दूसरे के पाले में फेंकने की छूट हैं। ये सब स्वास्थ्य पर कितना भारी पड़ रहा है, इसकी किसी को फिकर नहीं। कई विभाग और सबके अलग अधिकारों का फायदा उठाकर, मुनाफाखोर ऐन-केन-प्रकारेण बच ही निकलता है। हां, पिसता है तो सिर्फ और सिर्फ आम आदमी।
देश में तमाम बेकार और पुराने पड़े कानूनों को समाप्त करने की बात तो ताल ठोंककर की जाती है लेकिन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वालों के खिलाफ सारा कुछ एक ही कानून में लाकर समेटने की बात क्यूं नहीं होती? कितना अच्छा हो लोकतंत्र के माननीय इस दिशा में कुछ अच्छा, जल्द से जल्द करते ताकि 65 फीसदी युवाओं का भारत, मिलावट से मुक्ति पाकर दो जून का शुद्ध निवाला तो खा सके! (आईएएनएस)
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