गांधीजी ने चरखे व खादी को अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के गांवों में हुए आर्थिक पतन के खिलाफ अपने धर्मयुद्ध में प्रयोग किया तथा इन्हें देश के स्वतंत्रता संग्राम, राष्ट्र भावना और आर्थिक स्वराज के प्रतीक चिन्हों के रूप में अपनाया।
गांधीजी के अनुसार: ‘इस विस्मृत चरखे का खयाल पहली बार मेरे मन में 1909 में लंदन में आया। तभी वहां मैं बहुत ही लगन वाले कई भारतीय विद्यार्थियों और अन्य भारतीय भाईयों के सम्पर्क में आया। और इसी दौरान मेरे मन में यह बात एकाएक कौंधी सी गयी कि चरखे के बिना स्वराज्य नहीं प्राप्त कर सकते। तत्क्षण मैंने यह समझ लिया कि सभी को कातना है, लेकिन तब मुझे चरखे और करघे का भेद मालूूम नहीं था। ‘हिंद स्वराज्य’ में मैंने ‘चरखे’ के अर्थ में करघा शब्द का प्रयोग किया है।’
‘मैं पहले 1915 में बुनकर बना…. और बाद में कातने वाला। मैंने विदेशी सूत और मिल के सूत से बुनाई की। मैंने हाथ से कताई सिखाने वाले की भरसक तलाश जारी कर दी…. गुजरात की एक विधवा कर्मठ महिला को मैंने अपने इस गहरे दुःख से अवगत कराया।
….उसने वीजापुर की कुछ मुसलमान बहनों को खोज निकाला जो इस शर्त पर कताई करने को तैयार हो गईं कि उनका काता हुआ सूत उनसे ले लिया जायेगा। उसी समय से महान पुनरुत्थान का कार्य शुरू हुआ।….. मैंने निश्चय किया कि आश्रम में विदेशी अथवा मिल का कोई भी सूत अब बुनाई में प्रयोग नहीं होगा।’
चरखे का काम तीन वर्षों के कठिन और धैर्यपूर्ण प्रयासों के बाद 1918 में शुरू हो पाया। प्रथम खादी व्रत….1919 में लिया गया। चरखे को कांग्रेस के कार्यक्रम में 1921 में स्थान मिला।’
1921 में इसे (चरखे को) राष्ट्रीय झंडे में गौरवपूर्ण स्थान मिला।’