चक्रवातों का पता लगाने की भारतीय वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक ईजाद की है, जो उत्तर हिन्द महासागर क्षेत्र के ऊपर बनने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों (Tropical cyclogenesis) का पता उपग्रह की सूचना से भी पहले लगा लेगी।
आईआईटी खड़कपुर के जिया अल्बर्ट, बिष्णुप्रिया साहू और प्रसाद के. भास्करन जैसे वैज्ञानिकों के दल ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम (सीसीपी) के तहत एक नई तकनीक ईजाद की है।
वैज्ञानिकों ने जो तकनीक विकसित की है, उसका मकसद है कि तूफान आने से पहले ही बंवडर और भंवरदार हवा का सुराग लगा लिया जाये।
चक्रवातों का पहले पता लग जाने का सामाजिक-आर्थिक हालात पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। अब तक दूर संवेदी तकनीक के जरिये ही उनका पता सबसे तेजी से लगाया जाता रहा है।
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बहरहाल, इस दूर संवेदी तकनीक से पता लगाना उसी समय संभव होता था, जब समुद्र के पानी की ऊपरी सतह गर्म हो और कम दबाव का क्षेत्र बन रहा हो। इसका पता लगाने और चक्रवात के वजूद में आने के बीच काफी लंबा अंतराल होता है, जिससे तैयारी करने का वक्त मिल जाता है।
समुद्री सतह पर गर्म वातावरण बनने और चक्रवात के वजूद में आने से पहले, वातावरण में अस्थिरता आने लगती है और हवा भंवरदार बनने लगती है।
इस गतिविधि से वातावरण में उथल-पुथल शुरू हो जाती है। इस तरह के बवंडर से जो वातावरण बनता है, वह आगे चलकर तेज तूफान को जन्म देता है तथा समुद्र की सतह के ऊपर कम दबाव का क्षेत्र बन जाता है।
तेज तूफान आने की संभावना का इन्हीं गतिविधियों से पता लगाया जाता है।
इसमें बवंडर का सुराग लगाने वाली तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है और उत्तर हिंद महासागर क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय चक्रवात बनने की स्थिति और उसकी पूर्व-चेतावनी दी जा सकती है।
अनुसंधानकर्ताओं ने इस विषय पर ‘एटमॉसफेरिक रिसर्च’ नामक पत्रिका में अपना शोध प्रकाशित किया है।
वैज्ञानिकों ने जो तकनीक विकसित की है, उसका मकसद है कि तूफान आने से पहले ही बंवडर और भंवरदार हवा का सुराग लगा लिया जाये।
वैज्ञानिक इसकी पहचान और भंवरदार हवा का विश्लेषण करने के लिये दो चीजों के बीच की न्यूनतम दूरी को आधार बनाते हैं। इसका पैमाना 27 किलोमीटर और नौ किलोमीटर का है।
इससे बनने वाली तस्वीर का मूल्यांकन करके पता लगाया जाता है कि तूफान की भावी दशा और दिशा क्या हो सकती है। इस अध्ययन में मानसून के बाद आये चार भयंकर तूफानों को विषय बनाया गया था – फाइलिन (2013), वरदाह (2013), गाजा (2018), मादी (2013) और दो तूफान मानसून के बाद आये – मोरा (2017) तथा आयला (2009), जो उत्तर हिंद महासगार के ऊपर बने थे।
वैज्ञानिकों के दल ने गौर किया कि इस तकनीक से कम से कम चार दिन (लगभग 90 घंटा पहले) पहले तूफान के आने का पता लगाया जा सकता है कि वह कब बनेगा।
इसमें मानसून से पहले और बाद, दोनों समय आने वाले तूफान शामिल हैं। उष्णकटिबंधीय चक्रवात वातावरण की ऊपरी सतह पर पनपते हैं और पूर्व-मानसून काल के हवाले से जल्दी पकड़ में आ जाते हैं, जबकि मानसून पश्चात इसे इतनी तेजी से नहीं पकड़ा जा सकता। इस अध्ययन में बवंडर और भंवरदार हवा की गहन पड़ताल की गई, उनके व्यवहार को जांचा-परखा गया तथा आम दिनों के वातावरण के साथ इसके नतीजों की तुलना की गई।
इस तकनीक से उष्णकटिबंधीय चक्रवात का वातावरण में ही सुराग लगाया जा सकता है। यह तकनीक समुद्री सतह के ऊपर की हलचल को उपग्रह द्वारा पकड़ने से भी तेज है।
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