भारतीय दर्शन में मनुष्य की चेतना की सर्वोच्च अवस्था वह मानी जाती है, जहां वह सम्पूर्ण सृष्टि को स्वयं के भीतर और स्वयं को सम्पूर्ण सृष्टि के भीतर अनुभव करता है। पढ़ने-लिखने और कहने-सुनने में यह बात बहुत आती है, लेकिन इसे जो व्यक्ति वास्तविक रूप से महसूस कर लेता है, वह देवतुल्य हो जाता हैं। एकात्म मानववाद दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही महापुरुष थे।
कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। महापुरुषों में बचपन से ही कुछ विलक्षणता होती है। पंडितजी के बचपन का एक बड़ा प्रेरक प्रसंग हैं। उनकी किशोर अवस्था थी। वह सब्जी लेने बाजार गये और सब्जी बेचने वाली वृद्धा को चवन्नी का भुगतान कर दिया। घर लौटते समय उन्होंने जेब टटोली तो, देखा कि वह वृद्धा को खोटी चवन्नी दे आये हैं। उनका मन इतना दुःखी और द्रवित हो गया कि वह दौड़ते हुए उस वृद्धा के पास गये और उससे क्षमा प्रार्थना के साथ खोटी चवन्नी वापस लेकर उसे खरी चवन्नी दे दी।
महापुरुष ऐसे ही होते हैं। वे स्वयं कितने भी कष्ट उठा लें, लेकिन अपने कारण दूसरों को कष्ट नहीं होने देते। जीवनभर सादगी की प्रतिमूर्ति रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सर्वप्रिय वैसे ही नहीं बन गये थे। शिक्षा में हमेशा अव्वल रहने वाले पंडितजी की बुद्धि विलक्षण रूप से कुशाग्र थी। लेकिन कुशाग्र बुद्धि से कोई महापुरुष नहीं बनता। चित्त की निर्मलता का मेल होने पर ही वह जनकल्याणकारी सोच की ओर अग्रसर होता है। बहुत व्यापक अध्ययन करने वाले पंडित उपाध्याय सिर्फ किताबी ज्ञान से सम्पन्न नहीं थे। जिस व्यक्ति के पास स्वयं की अंतःप्रज्ञा नहीं होती, उसके लिए शास्त्रों के अध्ययन का कोई अर्थ नहीं। पंडितजी के पास अंतःप्रज्ञा थी। इसी के कारण वह मौलिक रूप से चिंतन कर सके। उन्होंने धर्म, अर्थशास्त्र, अध्यात्म, समाज, व्यक्ति सहित सभी विषयों पर मौलिक चिन्तन कर सार्थक निष्कर्ष हमारे सामने रखे। पंडितजी की जितनी गति एक आदर्श मूलक राजनीति में थी, उतनी ही साहित्य में भी, एक ही बैठक में चंद्रगुप्त नाटक लिख लेना उनकी साहित्याभिरुचि का प्रमाण ही नहीं था, बल्कि इस बात का भी कि सरहदों को सुरक्षित रखने और देश के राजनीति एकीकरण के लक्ष्य उनकी नज़र में कितने जरूरी थे।
पंडितजी भारत के विकास के लिए भारतीय चिंतन को ही आधार बनाना चाहते थे। वे कहते थे कि हम लोगों ने अंग्रेज शासन में अंग्रेजी वस्तुओं का विरोध कर हर्ष महसूस किया था, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि अंग्रेजों के जाने के बाद हम उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं। पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन दो अलग-अलग चीजें हैं। पश्चिमी विज्ञान बहुत सार्वभौमिक है और अगर हमें आगे बढ़ना है तो इसे जरूर अपनाना चाहिए। लेकिन जीवन मूल्य हमारे ही होने चाहिए। स्वतंत्रता को लेकर उनका मानना था कि यह तभी सार्थक होती है, जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाये। भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि यह जीवन को एक विशाल और समग्र रूप में देखती है। उन्होंने राजनीति में संस्कृति का संचार किया। वह सही अर्थों में जन-ऋषि थे।
पंडितजी कहते थे कि एक ही चेतना समस्त जड़चेतन में विराजमान है। इसलिए हम सबके है, सब हमारे है। मनुष्य केवल शरीर नहीं शरीर के साथ-साथ मन भी हैं, बुद्धि भी, आत्मा भी।
मनुष्य को पूरी तरह से सुखी रखना है तो शरीर के साथ-साथ मन, बुद्धि और आत्मा के सुख का भी विचार करना होगा। केवल भौतिक प्रगति नहीं, आध्यात्मिक उन्नति का भी विचार करना होगा।
पंडितजी अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति की भारतीय सोच को निरंतर आगे बढ़ाने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि मानव के मन, बुद्धि और मस्तिष्क का समन्वित रूप से विकास होना चाहिए। इनमें से किसी एक ही पक्ष के विकास पर ज्यादा बल देने से मनुष्य का समग्र विकास संभव नहीं है। अभी जिस कोझीकोड में हमारी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही है, वहाँ 50 साल पहले हजारों कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए श्री दीनदयालजी ने कहा था ‘हम किसी विशेष समुदाय या वर्ग की नहीं संपूर्ण देश की सेवा के लिए प्रतिबद्ध है, हर देशवासी हमारे रक्त का रक्त और हमारी मज्जा की मज्जा है, हम तब तक चैन की सांस नहीं लेंगे जब तक कि हम हर एक को गर्व का यह बोध दे सकें कि वे भारत माँ की संतान हैं।”
मुझे इस बात पर संतोष हैं कि विगत 11-12 वर्षों से मध्यप्रदेश में हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को आधार बनाकर अपनी योजनाएं निर्मित और क्रियान्वित कर रहे हैं। पंडितजी कहते थे कि हमारी प्रगति का आकलन सामाजिक सीढ़ी के सर्वोच्च पायदान पहुंचे व्यक्ति से नहीं बल्कि सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की स्थिति से होगा।
हमने पंडितजी के इसी चिंतन को आधार बनाकर समाज के निचले से निचले स्तर तक लोगों की बेहतरी के लिए काम किया। आयुर्वेदिक औषधालयों में काम करने वाले कम्पाउंडर हों या घरों में काम करने वाली बहनें, स्कूल के अंशकालिक लिपिक हों या सफाई कर्मचारी, भूमिहीन कोटवार, आंगनवाडी कार्यकर्ता, सहायिका, होमगार्ड, मजदूर, हम्माल, तुलावटी, रोजनदार मजदूर, बुजुर्ग श्रमिक, बोझा ढोने वाले मजदूर, गुमटी वाले, खेतीहर मजदूर सहित समाज के सबसे कमजोर वर्गों के जीवन में खुशहाली लाने का हमने पूरा प्रयास किया है। पंडितजी की प्रेरणाओं को योजनाओं में बदलने का हमारा यह प्रयास लगातार जारी रहेगा।
आइये, महामानव पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मशताब्दी वर्ष में हम समाज के कमजोर वर्गों के हित में श्रेष्ठतम् काम करने के अपने संकल्प को और मजबूत करें। स्वयं में दूसरों को देखें और दूसरों को स्वयं में एक ही चेतना या ‘आत्म’ को चराचर जगत् में अनुस्यूत देखें। यही हमारी पंडितजी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-लेखक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।
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