अतुल सिन्हा===
बदलते दौर में संस्कृति और परंपराओं के साथ साथ अपने देश के गौरवशाली इतिहास को बचाने की चुनौती हर सरकार के सामने रही है। केंद्र सरकार का संस्कृति मंत्रालय इस दिशा में लगातार कोशिशें करता रहा है। तमाम कार्यक्रमों और योजनाओं के ज़रिए संस्कृति के विकास और संरक्षण के काम होते रहे हैं। लेकिन पिछले दो साल इस मामले में सबसे अहम रहे हैं। दरअसल इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति जागरूक बनाने, इतिहास और परंपराओं में रूचि पैदा करने की दिशा में तेजी से काम हो रहे हैं। ‘डिजिटल इंडिया’ महज नारा नहीं रह गया है बल्कि इसे ज़मीनी हकीकत बनाने में मंत्रालय के तमाम विभागों ने काफी सक्रियता दिखाई है। अगर आप संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर जाएं तो यह एहसास आपको खुद हो जाएगा कि इसमें कितना बदलाव आया है और कितनी तेजी से आपको संस्कृति से जुड़े कार्यक्रमों के बारे में नए अपडेट्स मिल रहे हैं। मंत्रालय का मोबाइल ऐप ‘संस्कृति’ इस दिशा में एक अहम कदम है।
फोटोः विदेश मंत्रालय और प्रवासी भारतीय मामलों की केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज, संस्कृति (स्वतंत्र प्रभार), पर्यटन (स्वतंत्र प्रभार) और नागरिक उड्डयन राज्य मंत्री डॉ महेश शर्मा, संस्कृति मंत्रालय के सचिव नरेन्द्र कुमार सिन्हा और अन्य गणमान्य व्यक्ति 4 नवंबर, 2015 को नई दिल्ली में 4 दिवसीय राष्ट्रीय संस्कृति महोत्सव के अवसर पर।
सरकार के लिए अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाना, इससे नई पीढ़ी को जोड़ना और इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को भरपूर मदद देना सरकार की प्राथमिकताओं में है। निजी तौर पर संस्कृति मंत्री डॉ. महेश शर्मा की दिलचस्पी अपने देश की कला, संस्कृति, संगीत, नृत्य, रंगमंच के अलावा अपनी परंपराओं और धरोहरों के संरक्षण में है और उनकी सक्रियता इस दिशा में लगातार दिखाई देती रही है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र महज सफेद हाथी बन कर न रह जाए, इसके लिए इसके स्वरूप में आमूल चूल बदलाव लाने की पहल हो चुकी है। संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान अब पहले से कहीं ज्यादा सक्रिय हैं।
आम तौर पर सांस्कृतिक महोत्सवों और कला मेलों में आने वाले कलाकार अपनी उपेक्षा और आयोजकों के रवैये से नाराज़ रहते हैं, ऐसे आयोजनों को दिखावा और महज कुछ लोगों के फायदे के लिए बताते हैं लेकिन जिस तरह दिल्ली में आठ दिनों तक चला राष्ट्रीय संस्कृति महोत्सव इस बार संपन्न हुआ और तकरीबन दो हज़ार से ज्यादा कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया वह अपने आप में अनूठा था। यहां संगीत का हर रंग दिखा, लोक कला के तमाम आयाम नज़र आए, सभी क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों ने हर विधा से जुड़े कलाकारों को मंच और सुविधाएं प्रदान कीं, सरकार के तमाम मंत्रीगण समेत कला-संस्कृति से जुड़ी जानी मानी हस्तियों ने इसमें गहरी रूचि दिखाई, यह एक बड़ी उपलब्धि है।
दूसरी तरफ आर्ट ऑफ लिविंग के विश्व संस्कृति उत्सव में जिस तरह हज़ारों कलाकारों ने दिल्ली के यमुना तट पर बने विशालकाय और बेहद आकर्षक मंच पर तीन दिनों तक समां बांधा और प्रधानमंत्री, सहित अनेक मंत्रियों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई, वह अपने आप में एक यादगार और अनूठी पहल है। यहीं से गंगा के साथ साथ यमुना की सफाई को लेकर भी एक नई जागरूकता दिखाई पड़ी।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस पिछले कई दशकों से सियासत के केन्द्र में रहे हैं। उनके बारे में हर उपलब्ध दस्तावेज़ सार्वजनिक करने का काम करके सरकार ने आम लोगों के भीतर बनी नेताजी की अबूझ पहेलियों को सुलझाया, उनकी विरासत को पूरे सम्मान के साथ आगे बढ़ाने की पहल की और उनके 119वें जन्मदिवस पर लोगों को ये तोहफा दिया कि वे अब ये सारे दस्तावेज़ कभी भी इंटरनेट पर देख सकते हैं। साथ ही नेताजी के परिवारवालों को नई पहचान दिलाई गई। नेशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया (राष्ट्रीय अभिलेखागार) की 125वीं सालगिरह पर हुए कार्यक्रम में नेताजी के भाई अमियनाथ बोस से जुड़े दस्तावेज भी अभिलेखागार को सौंपे गए।
अपने देश के पुरातत्व और इतिहास से जुड़े दस्तावेजों को लेकर, अपने धरोहरों को बचाने और इनके पुनरुद्धार को लेकर कई कोशिशें हो रही हैं। खासकर इन संस्थाओं और विभागों के डिजिटाइजेशन के साथ साथ इनसे जुड़ी सूचनाओं को आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने और इन्हें सहेजने के काम ने तेजी पकड़ी है। कई ऐसे वेब पोर्टल और ऐप विकसित किए गए हैं जिनके ज़रिए अब हर जानकारी आम आदमी की पहुंच में आ गई है। सबसे अहम काम हो रहा है उन उपेक्षित स्मारकों की सफाई का जहां बिखरी गंदगी और अव्यवस्था से कोई वहां जाना पसंद नहीं करता। स्वच्छ भारत अभियान के तहत ‘स्वच्छ भारत, स्वच्छ स्मारक’ का नारा अब ज़मीन पर उतारने की कोशिश जारी है।
गंगोत्री से गंगासागर तक करीब 262 क्षेत्रों से होकर गुज़री गंगा संस्कृति यात्रा ने करीब ढाई करोड़ लोगों के बीच गंगा के प्रति आस्था और इसकी सफाई को लेकर जागरूकता पैदा करने का काम किया। गंगा को सांस्कृतिक एकता और आस्था का प्रतीक और तमाम नदियों के विकास और संरक्षण की दिशा में उठाए जा रहे कदम भी सरकार की उपलब्धियों में गिने जा सकते हैं। खासकर वाराणसी के विकास और गंगा के साथ साथ वरुणा और अस्सी जैसी नदियों के अस्तित्व को बचाने को लेकर जिस तरह प्रधानमंत्री और संस्कृति मंत्री ने निरंतर कोशिशें की हैं, उसकी वाराणसी में ही नहीं, पूरी दुनिया में चर्चा है। संस्कृति के विस्तार, इसके संरक्षण और नई पीढ़ी को इससे जोड़ने की कोशिशों के साथ साथ एक सबसे बड़ा काम उन कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों के डाटाबैंक बनाने का भी है, जिससे देशभर के उन तमाम लोगों की पहचान की जा सके जो वास्तव में कला और संस्कृति के लिए समर्पित हैं या जिनका कोई न कोई योगदान इस क्षेत्र में है। इससे उन कलाकारों को पहचानने और उनकी जीवन शैली के साथ साथ कला और परंपरा को बेहतर बनाने की दिशा में काफी फायदा होने वाला है। अब तक तकरीबन 55 लाख संस्कृतिकर्मियों और इस क्षेत्र से जुड़े लोगों व संस्थाओं का डाटा बैंक तैयार हो चुका है।
आमतौर पर सरकारी योजनाओं और इन्हें ज़मीनी स्तर पर उतारने को लेकर गंभीर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन इसे पारदर्शी बनाने और वास्तव में लोक और आदिवासी कला और संस्कृति के संरक्षण के साथ साथ कलाकारों के हित में काम करने की ये पहल उम्मीद जगाने वाली है। इसका अंदाज़ा मौजूदा बजट में संस्कृति मंत्रालय के लिए 17.5 फीसदी की गई बढ़ोत्तरी से लगाया जा सकता है। इस बार संस्कृति मंत्रालय को अपने कामकाज को बेहतर बनाने के लिए 2500 करोड़ रूपए का बजट दिया गया है। जाहिर है अगर इस बजट का सही और व्यावहारिक इस्तेमाल होता है तो कोई संदेह नहीं कि अपने देश की कला, संस्कृति, इतिहास, परंपराएं और धरोहर सुरक्षित ही नहीं रहेगी, लगातार फले फूलेगी और नई पीढ़ी इसके रंग को बेहतर तरीके से समझ पाएगी। इसके लिए ज़रूरी है कि सही व्यक्तियों और संस्थाओं की तलाश की जाए, उनके कामकाज, अनुभव और ईमानदारी की जांच हो और फिर समर्पित तरीके से काम करने वालों की ऐसी टीम पूरे देश में सक्रिय रहे जो न सिर्फ संस्कृति को समझती हो, बल्कि इसे आज के संदर्भों में जोड़कर, इसे सामयिक बनाकर और हाशिए पर पड़े कलाकारों को मुख्य धारा में लाकर काम करे। आज सचमुच ज़रूरत है उन कलाओं को बचाने की जो विलुप्त हो रही हैं। उन कला रूपों को, भाषा और बोलियों को, संगीत और नृत्य शैलियों को बचाने और उनके लिए ऐसे नए संस्थान, प्रतिष्ठान और अकादमियां बनाने की आज ज़रूरत है जो ज़मीनी स्तर पर काम कर सकें।
(लेखक 7 रंग के संपादक हैं। लेख में विचार उनके अपने हैं)
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