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नदियों को जोड़ने की 11 लाख करोड़ रु. की परियोजना पर नए सवाल

नई दिल्ली, 10 अक्टूबर | भारत की नदियों को जोड़ने की 11 लाख करोड़ रुपये (165 अरब डॉलर) की परियोजना पर नए सवाल उठ खड़े हुए हैं, जिसमें अधिक पानी वाली नदियों को कम पानी वाली या सूखी नदियों से जोड़ने की योजना है।

औसत मॉनसून के बावजूद दक्षिणी कर्नाटक के कावेरी बेसिन के सूखे जलाशय भारत में पिछले 65 सालों में बारिश के रुझान व्यक्त करते हैं। औसत से जरा-सी कम बारिश होते ही सूखे की मार देखने को मिलती है। इंडिया स्पेंड की अप्रैल 2015 की रपट में यह बात कही गई थी।

बारिश के आंकड़ों के एक नए विश्लेषण से यह जानकारी मिली है कि उन नदियों में मॉनसून के दौरान पानी घटा है, जहां कभी अधिक पानी रहा करता था। इसलिए भारत की नदियों को जोड़ने की 11 लाख करोड़ रुपये (165 अरब डॉलर) की परियोजना पर नए सवाल उठ खड़े हुए हैं, जिसमें अधिक पानी वाली नदियों को कम पानी वाली या सूखी नदियों से जोड़ने की योजना है।

ओपेन एक्सेस वैश्विक पत्रिका, प्लोस वन में प्रकाशित एक रपट के अनुसार, अतिरिक्त जल वाली नदियों -महानदी और पश्चिमी भारत की तरफ बहने वाली अन्य नदियां- में एक-चौथाई सदी (1951-75 और 1976-2000) में 10 फीसदी से अधिक पानी की कमी देखी गई है। वहीं, सिंधु क्षेत्र में नीचे दक्षिण की तरफ गंगा समेत अन्य पूरब की तरफ बहने वाली नदियों में पानी में 10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर और शोध के लेखक सचिन एस. गुनथे ने इंडिया स्पेंड को बताया, “भारतीय नदियों की घाटी में पानी की असमानता को पाटने के लिए जो नदियों की जोड़ने की परियोजना बनाई गई है, उसका तत्काल मूल्यांकन करने की जरूरत है।”

2001 में 30 अंतर-बेसिन जल अतंरण योजना का बजट 5,60,000 करोड़ रुपये (124 अरब डॉलर) था, जिसके तहत नहरों, बांधों, जल सेतु और पंपिंग स्टेशन की मदद से नदियों को जोड़ना था। अप्रैल 2016 में जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने इस योजना का संशोधित अनुमान 11 लाख करोड़ रुपये लगाया, जो कि 15 साल पहले के अनुमान से दोगुना है। यह रकम इतनी बड़ी है कि भारत के कृषि बजट से 44 गुणा और सरकार द्वारा वित्त वर्ष 2015-16 में किए गए कुल खर्च से 1.6 गुणा है।

पहली नदी जोड़ परियोजना के तहत मध्यप्रदेश के दौधान से केन नदी का पानी 231 किलोमीटर दूर सूखा प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुदेलखंड तक पहुंचाना है, जिसे सितंबर 2016 में मंजूरी दी गई थी। तभी से इस योजना पर विवाद है। क्योंकि इस योजना के कारण मध्य भारत का पन्ना टाइगर रिजर्व जलमग्न हो जाएगा।

मॉनसून के पैटर्न बदलने के नए सबूतों के बाद नदी जोड़ परियोजना की समीक्षा की आवश्यकता है। एक सरकारी प्रवक्ता ने इस अध्ययन के निष्कर्षो पर सवाल उठाए। जबकि पर्यावरण मंत्री ने इंडियास्पेंड की रपट को स्वीकृति देते हुए कहा कि ‘कई परस्पर विरोधी विचार’ हैं। इसलिए केन नदी जोड़ परियोजना की सफलता या असफलता से ही इसका आकलन हो सकेगा।

स्वतंत्र विशेषज्ञों का कहना है कि अरबों-खरबों डॉलर की इस परियोजना पर आगे बढ़ने से पहले देखना होगा कि इस तरह की परियोजनाओं ने दूसरे देशों में पारिस्थितिकी उथलपुथल पैदा की है। खासतौर से ऑस्ट्रेलिया का एक उदाहरण सामने है, जहां बांधों की ऊंचाई बढ़ानी बढ़ रही है। इसलिए नदियों को जोड़ना वैश्विक स्तर पर एक विवादास्पद मुद्दा है।

नदियों को जोड़ने की परियोजना पर विवाद इसके ऊपर आनेवाले खर्च को लेकर ही शुरू हो जाता है। अधूरे लागत अनुमानों के साथ सटीक लागत लाभ का विश्लेषण मुश्किल है।

30 नदियों को जोड़ने की मूल परियोजना की लागत 124 अरब डॉलर थी। जुलाई 2016 की रपट (योजना आयोग के पूर्व सदस्य मिहिर शाह इसके सहलेखक हैं) के मुताबिक, इस अनुमानित लागत में बांध, राहत और पुर्नवास तथा वॉटर पंपिंग के लिए बिजली पर होनेवाला खर्च शामिल था।

लेकिन इसमें कई सारे खर्च नहीं जोड़े गए थे।

पर्यावरण विज्ञानियों ने अनुमान लगाया है कि इससे पर्यावरण पर कई अप्रत्याशित प्रतिकूल परिणाम होंगे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एमेरिट्स वी. राजामणि ने करेंट साइंस में 2006 में लिखा था कि अगर भारत की पूरब की ओर बहने वाली नदियों का पानी दूसरी जगह भेज दिया जाता है तो बंगाल की खाड़ी में कम पानी पहुंचेगा। इसके कई दुष्प्रभाव होंगे जैसे पानी में कम लवणता होने से समुद्र का तापमान 28 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा हो जाएगा। इससे वहां कम दबाव का क्षेत्र उत्पन्न होगा, जिससे उपमहाद्वीप में तेज बारिश होगी।

एक अन्य रपट में अनुमान लगाया गया है कि भारत की पूर्वी तट की नदियों का पश्चिम की तरफ ले जाने से बाढ़ आना कम हो जाएगा और इसके कारण तलछट (यह एक प्राकृतिक पोषक तत्व की तरह है) की आपूर्ति कम होगी, जिससे नाजुक तटीय पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाएगा, साथ ही नदियों की तटों पर कटाव में भी वृद्धि होगी।

वहीं, भारत की नदी जोड़ परियोजना की डिजाइन में भी गलती है। मिहिर शाह समिति की रपट में कहा गया है, “नदियों को जोड़ने की जो परिकल्पना बनाई गई है, वह भारत के भूगोल को देखते हुए गलत है। संभवत: इसमें मध्य और पश्चिम भारत के सुखाड़ वाले क्षेत्रों की पूरी तरह अनदेखी की गई है, जोकि समुद्र की सतह से 300 मीटर या उससे अधिक की ऊंचाई पर स्थित है।”

अर्थशाी, योजना आयोग के पूर्व सदस्य और समाज प्रगति सहयोग (आजीवीका की सुरक्षा की वकालत करनेवाली संस्था) के सहसंस्थापक शाह का कहना है, “अन्य देशों की गलतियों को दोहराने के बजाए भारत को नदी जोड़ने की विफल रही परियोजनाओं से सीखना चाहिए।”

नदियों को आपस में जोड़ने से भूजल संभरण में कमी आती है।

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल के समन्वयक हिमांशु ठक्कर का कहना है कि भारत की पानी की 80 फीसदी जरूरत भूजल से पूरी होती है, इसमें सिंचित क्षेत्र की जरूरत का 60 फीसदी पानी भूजल से ही आता है। शहरी क्षेत्र में 60 फीसदी पानी की आपूर्ति और ग्रामीण क्षेत्र में 85 फीसदी पानी की आपूर्ति भूजल से ही होती है।

इसका नतीजा यह है कि देश में भूजल का स्तर घटा है और इसकी गुणवत्ता खराब हो गई है। जनवरी 2016 के खत्म हुए दशक में भूजल स्तर में 65 फीसदी की गिरावट आई है। 2016 की केंद्रीय जल बोर्ड की रपट से यह जानकारी मिली है।

ठक्कर ने कहा, “नदियों को जोड़ने के बारे में तभी सोचना चाहिए, जब वर्षा जल संचयन, भूजल संभरण, जलागम क्षेत्र का विकास, बेहतर फसलों (गैर पानीप्रधान फसलों) की खेती और तरीके (जैसे राइस इंटेसीफिकेशन), धरती की नमी को रोकने की क्षमता में बढ़ोतरी और पानी को बचाना तथा उसका भंडारण करना आदि तरीके से काम न चले और यह पूरी तरह विफल हो जाए।”

वह कहते हैं, “हमने अभी तक इन तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया है।”

(आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। यह इंडियास्पेंड का निजी विचार है)

–आईएएनएस