संदीप पौराणिक====भोपाल, 19 जून | देश में राजनीतिक दलों से लेकर सरकारों तक के लिए गरीब और गरीबी हमेशा मुद्दा होता है, मगर इस वर्ग को लेकर वास्तव में वे कितने गंभीर हैं, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नीति आयोग बीते एक वर्ष में गरीबी की व्यवहारिक परिभाषा तक विकसित नहीं कर पाया है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के केंद्र की सत्ता संभालते ही योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग बनाया गया। नीति आयोग की शासी परिषद की पहली बैठक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आठ फरवरी, 2015 को हुई। इस बैठक में लिए गए फैसले के मुताबिक नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता में 16 मार्च 2015 को गरीबी उन्मूलन संबंधी कार्यदल का गठन किया गया।
इस कार्यदल को गरीबी की व्यावहारिक परिभाषा विकसित करने की भी जिम्मेदारी थी, मगर सूचना के अधिकार के तहत सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौर को जो जानकारी नीति आयोग ने भारतीय राष्ट्रीय परिवर्तन संस्था (डाटा बेस एवं विश्लेषण) से हासिल कर मार्च 2016 में भेजी है, वह इस बात को स्पष्ट करता है कि गरीबी की परिभाषा अब तक तय नहीं हो पाई है।
गौर ने नीति आयोग से सूचना के अधिकार के तहत जानना चाहा था कि क्या केंद्र सरकार गरीबी की परिभाषा में किसी बदलाव की योजना पर काम कर रही है, इसके अलावा शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में कितने रुपये प्रतिदिन खर्च करने वाला गरीब नहीं माना जाएगा। गरीबी रेखा में आखिरी बार कब बदलाव हुआ है, क्या सरकार इस पैमाने में बदलाव की किसी योजना पर काम कर रही है।
नीति आयेाग की ओर से दिए गए जवाब में कहा गया है कि पूर्ववर्ती योजना आयोग सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) परिवार उपभोक्ता व्यय पर किए गए वृहद प्रतिदर्श सर्वेक्षण से गरीबी का अनुमान लगाता था। यह सर्वेक्षण पंचवर्षीय आधार पर होता था। इसका नवीनतम डाटा वर्ष 2011-12 का है।
नीति आयोग की ओर से दी गई जानकारी में योजना आयोग के समय गरीबी रेखा तय करने के लिए अपनाए गए तरीके का ब्यौरा दिया है, जिसमें कहा गया है कि मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) के अनुसार परिभाषित गरीबी रेखा का उपयोग करते हुए गरीबी का अनुमान लगाया था।
इस कार्य प्रणाली की समीक्षा के लिए प्रो. सुरेश डी. तेंदुलकर की अध्यक्षता में योजना आयोग ने वर्ष 2005 में विशेषज्ञों का समूह गठित किया था। तेंदुलकर समिति ने वर्ष 2004-05 के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 447 रुपये (14 रुपये 90 पैसे प्रतिदिन) और शहरी क्षेत्र के लिए 579 रुपये (19 रुपये 30 पैसे प्रतिदिन) प्रतिमाह प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय को गरीबी रेखा मानने की सिफारिश की थी, जिसे आयोग ने मान लिया था।
नीति आयेाग के जवाब में आगे बताया गया है कि पूर्ववर्ती योजना आयोग राष्टीय और राज्य स्तर पर गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात का अनुमान लगाने के लिए तेंदुलकर समिति की कार्यप्रणाली का उपयोग कर रहा था।
वर्ष 2011-12 के लिए योजना आयोग ने तेंदुलकर समिति की सिफारिश और वर्ष 2011-12 में अद्यतित (अपग्रेड) गरीबी रेखा का उपयोग कर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 816 रुपये (27 रुपये दो पैसे प्रतिदिन) और शहरी क्षेत्र के लिए 1000 रुपये (33 रुपये 33 पैसे प्रतिदिन) प्रति माह प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय को गरीबी रेखा माना है। ये गरीबी रेखा राज्यों में प्रचलित मूल्य में अंतर के कारण राज्य दर अलग-अलग है।
गरीबी मापन की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए येाजना आयोग ने जून 2012 में डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समूह गठित किया था, उसकी सिफारिशें सरकार के पास लंबित हैं। इसी बीच 2015 में आयोग को ही खत्म कर दिया गया।
सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता गौर का कहना है कि गरीबी उन्मूलन के लिए आवश्यक है कि उसके मापदंड वर्तमान पर आधारित हो तभी गरीबी उन्मूलन जैसी समस्या से पार पाया जा सकेगा।
नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता में गठित गरीबी उन्मूलन संबंधी कार्यदल को केंद्रीय और राज्य सरकारों के कार्यदलों के बीच समन्वय व तालमेल कायम करने की जिम्मेदारी है, इसके अतिरिक्त इस कार्यदल को गरीबी की परिभाषा, गरीबी उन्मूलन की रुपरेखा तैयार करना, मौजूदा कार्यक्रमों में सुधार व सुझाव और ऐसे गरीबी रोधी कार्यक्रम को खोजना है जिससे राज्य सरकारें सबक लें।
गरीबी की परिभाषा सहित गरीबी उन्मूलन के लिए सुझाव देने के लिए गठित कार्यदल का एक वर्ष से अधिक का कार्यकाल गुजर गया है, अब देखना है कि यह कार्यदल गरीबी की परिभाषा तय करने में कितना वक्त लगाता है।
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