भारत के पंजाब राज्य में किसानों के लिए, जल की कमी एक कड़वी सच्चाई है। आपस में गुंथी हुई आपदाओं के जोखिम पर केन्द्रित, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के प्रकाशन से ठीक पहले, चावल की खेती करने वाले तीन किसानों ने जल की क़िल्लत से उत्पन्न चुनौतियों व समाधानों के बारे में विस्तार से बातचीत की।
चावल की खेती करने वाले किसानों के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण है और जब इसकी कमी होती है, तो उन्हें भूजल पर निर्भर होना पड़ता है.
विश्व स्तर पर, 40 प्रतिशत कृषि, भूमिगत जलाशयों से लिए गए जल पर निर्भर है, लेकिन समय के साथ भूजल के गिरते स्तर के कारण उस तक पहुँचना कठिन हो जाता है.
भारत में रोटी की टोकरी कहे जाने वाले पंजाब में, भूजल बहाल होने की बजाय, तेज़ी से ख़त्म होता जा रहा है. पंजाब के तीन किसानों ने बताया कि वो इस कमी से किस तरह निपट रहे हैं.
‘केवल भावी पीढ़ियों की समस्या नहीं’
अमनदीप सिंह: दस साल पहले यहाँ नौ से 12 मीटर के बीच गहराई पर भूजल मौजूद होता था, जबकि आज यह 18 से 21 मीटर के बीच पाया जाता है.
हम भूजल पर बहुत अधिक निर्भर हैं, क्योंकि हमें सप्ताह में केवल एक बार नहर का पानी मिल पाता है, जो हमारे लिए पर्याप्त नहीं है.
हर साल भूजल तक पहुँचने के लिए हमें गहरी खुदाई करनी पड़ती है. यह केवल भावी पीढ़ियों की समस्या नहीं है, बल्कि हम अभी से इसे महसूस कर रहे हैं. भूजल तक पहुँचना बहुत महंगा पड़ता है, लेकिन हम भूमिधर किसानों के पास अन्य कोई विकल्प नहीं है.
भूजल स्तर कम होने से केवल खेतों के मालिकों को ही नहीं, बल्कि सभी को नुक़सान होगा. इससे हमारे पास खेती करने या पीने के लिए पानी नहीं रहेगा. इसके बिना, कोई खेती नहीं हो पाएगी, और भूमि मालिकों का भविष्य अंधकारमय होगा.
हरजीत सिंह: धान की खेती के लिए हम जिस भूजल का उपयोग करते हैं, उसका वर्षा से पुनर्भरण नहीं हो रहा है. फिर, चूँकि यहाँ नहर का पानी उपलब्ध नहीं है, इसलिए बारिश न होने पर भी हमें भूजल का उपयोग करना पड़ता है.
सात से आठ साल पहले, हमें 4.5 मीटर की ग़हराई पर भूजल प्राप्त हो जाता था, लेकिन अब इसके लिए 21 मीटर की ग़हराई तक खोदना पड़ता है. जल स्तर घटने से मेरी आमदनी पर असर पड़ रहा है और मैं बोरवेल लगवाने का ख़र्च वहन करने में असमर्थ हूँ.
यदि भूजल ग़ायब हो गया तो यह स्थिति विनाशकारी होगी. यह बहुत ज़रूरी है कि दुनिया हमारी समस्या को समझे, तभी कुछ किया जा सकता है. अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता. जब हम एक साथ आएँगे और सामूहिक प्रयास करेंगे तभी बदलाव सम्भव होगा.
इससे पहले कि भूजल पहुँच से दूर हो जाए या पूरी तरह ख़त्म हो जाए, हमें निचले स्थानों पर वर्षा के जल का संचय करना होगा. फिलहाल, कोई दूसरा उपाय नहीं है.
परम्परा व प्रौद्योगिकी का मिलन
विश्वजीत सिंह ज्यानी: पिछले कुछ वर्षों में, वर्षा और मौसम का स्वरूप बहुत अनियमित हो गया है. साथ ही नहर के जिस पानी व भूजल पर हम निर्भर हैं, उसका भी भरोसा नहीं है.
हमारे पारिवारिक खेत में हम इस आदर्श का पालन करते हैं, “आधुनिक तकनीक के साथ पारम्परिक ज्ञान.”
मेरे पिता भी एक किसान थे और कई पारम्परिक तकनीकों का इस्तेमाल करते थे. मैंने कम्प्यूटर की शिक्षा ली, और उनके साथ मिलकर प्राकृतिक संसाधनों के उत्कृष्ट प्रबन्धन हेतु, पारम्परिक तकनीकों को आधुनिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकियों के साथ एकीकृत किया.
हमारे यहाँ, हरिके आर्द्रभूमि और सतलुज नदी से आने वाला नहर का पानी ही जल का मुख्य स्रोत है. हम जल प्रबन्धन प्रणाली के ज़रिए इसे को संग्रहित करते हैं, या फिर खेतों की सिंचाई के काम में लाते हैं. कमी पड़ने पर, हमें भूजल का उपयोग करना पड़ता है.
एकीकृत जल प्रबन्धन प्रणाली हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इससे हम उस समय पानी बचा पाते हैं, जब खेतों में इसकी ज़रूरत नहीं होती. यह एक बैक-अप प्रणाली की तरह है, जो नहर के पानी और भूजल के अलावा जल की पूर्ति करता है.
यदि खेत में अधिक वर्षा होती है तो हम उसका भंडारण कर लेते हैं, और सूखा पड़ने पर भूमि की सिंचाई के लिए इसका उपयोग करते हैं.
हमने भूजल पुनर्भरण में मदद करने के लिए बहुत कुछ किया है और हमें प्रसन्नता हैं कि इन प्रयासों के परिणामस्वरूप अब यहाँ तीन से छह मीटर की ग़हराई पर पानी उपलब्ध है.
जब भूजल दुर्लभ हो जाता है और स्थानीय किसानों के लिए उस तक पहुँचना सम्भव नहीं हो पाता. ऐसे में, राज्य और केंद्र सरकारों को हस्तक्षेप करना पड़ेगा. उन्होंने पहले ही योजनाएँ विकसित कर ली हैं और कुछ राज्यों में तो उन्हें लागू भी कर दिया गया है.
किसानों को चावल जैसी अधिक जल की खपत वाली फ़सलों के बजाय अन्य प्रकार की फ़सलें लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.
अगर आप चाहते हैं कि किसान भूजल बचाएँ, तो केवल उन्हें इसे संरक्षित करने के लिए कहना काफ़ी नहीं होगा. अगर उन्हें अन्य फ़सलें बोने के लिए प्रोत्साहन मिले तो किसानों को समझाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी. चूँकि किसान देश की रीढ़ हैं, वो स्वेच्छा से इसे अपनाएँगे, फिर समाज भी इसका अनुसरण करेगा. (संयुक्त राष्ट्र समाचार)
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