ऋतुपर्ण दवे=====
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं, अलबत्ता कुछ अपेक्षित, कुछ अभूतपूर्व जरूर कहे जा सकते हैं। चौंकाने वाली बात अगर है तो यह कि तीन राज्य ऐसे हैं, जहां न कांग्रेस और न ही भाजपा सत्ता में आई, बल्कि क्षेत्रीय दलों ने अपना परचम लहराया।
इसमें भी दो दलों ने अपनी वापसी कर राष्ट्रीय राजनीति में नए विकल्पों की संभावनाओं के बलवती कर दिया। तो क्या इन चुनाव परिणामों की गंभीरता को नजर अंदाज करना राष्ट्रीय दलों की चुनौती बन सकती है? इनको लेकर राष्ट्रीय राजनैतिक दल कितना चिंतित हैं, नहीं पता। मगर आंकड़े तो यही कहते हैं कि वर्ष 2017 के चुनावों के बाद राष्ट्रीय राजनीति के धरातल पर गठबंधन की राजनीति फिर उफान मारते जरूर दिखेगी।
आज के नतीजों के बाद भाजपा जरूर बहुत जोश में दिख रही है। लेकिन पांच में से तीन राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मजबूती ने यह जतला दिया है कि 2019 के आम चुनावों तक एक बार फिर गठबंधन की राजनीति देश के राजनैतिक घटनाक्रम में अहम होगी!
संकेत तो कुछ ऐसी ही दिख रहे हैं, क्योंकि 2017 में 7 राज्यों के चुनाव होने हैं जिनमें उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, पंजाब में अकाली दल, मणिपुर में मणिपुर पीपुल्स पार्टी, फेडरल पार्टी ऑफ मणिपुर, वहीं हरियाणा में नेशनल लोक दल, हरियाणा जनहित कांग्रेस, हरियाणा विकास पार्टी का तो गुजरात में पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) का कहीं थोड़ा तो कहीं काफी प्रभाव है।
इन नतीजों के बाद सबसे रोचक बात यह सामने आई है कि तीन मुख्यमंत्रियों की ताजपोशी तय है, तीनों ही कुंवारे हैं। नए चेहरे के रूप में असम के सर्बानंद सोनवाल हैं, जो अविवाहित हैं। वहीं ममता बनर्जी और जे जयलिलता भी कुंवारी हैं।
यह एक संयोग ही है कि मोदी सरकार के पहले दो वर्ष के कार्यकाल के दौरान दिल्ली का इत्तेफाक, बिहार की हार और उत्तराखंड में हुई जल्दबाजी की रार के बाद 2016 में पहली बार असम में भाजपा की सरकार, बहुत बड़ी उपलब्धि है।
इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में सीटों में वृद्धि के साथ वोट प्रतिशत बढ़ना और केरल में खाता खुलना ऐसी उपलब्धि है, जिसने पुराने सारे घावों पर मरहम का काम किया। लेकिन पुदुच्चेरी में कांग्रेस ने जीत कर इस चुनावी दंगल में अपनी उपस्थिति को कायम रखा है।
असम में भाजपा गठबंधन ने जिसमें असम गण परिषद और बोडो पीपुल्स फ्रंट साथ थे, 15 वर्षों से काबिज कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखा दिया। स्थानीय मुद्दों पर ही असम में 80 प्रतिशत वोट पड़ने के बाद से ही यह लगने लगा था कि यहां पर नया वोट बैंक अपना असर दिखाएगा जो कि युवाओं और महिलाओं का था।
बेदाग छवि के सर्बानंद सोनवाल जो स्वयं जनजाति से आते हैं। उन्होंने जनजातियों की एकता के नाम पर मतदाताओं को बहुत लुभाया।
पश्चिम बंगाल में ममता की जीत की असल इबारत तो 2015 के स्थानीय चुनावों में लिखी जा चुकी थी, जब 92 स्थानीय निकायों में से 70 पर तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा को 6, कांग्रेस को 5 जबकि 11 ऐसे नगरीय निकाय है जहां पर किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला थे।
राजनीतिक पंडितों ने तभी बता दिया था कि 2016 में ममता की जबरदस्त वापसी होगी, लेकिन इतनी जबरदस्त होगी। इसका असल अंदाजा किसी को भी नहीं था। ममता की लोकप्रियता और कार्यशैली उसी वक्त समझ में आ गई थी, जब 2011 में उन्होंने 34 वर्षों से काबिज वाम मोर्चे की जड़ें हिलाकर रख दीं और इस बार उसे तीसरे नंबर पर ला पटका।
तमिलनाडु में 32 वर्षों के बाद ऐसा हुआ है कि लगातार दोबारा किसी की सरकार बनने जा रही है। वहां उनके खिलाफ कोई एंटी इन्कबेंसी लहर भी नहीं थी। जयललिता ने निश्चित रूप से गरीबों के लिए बहुत अच्छा काम किया था। उनकी सोशल इंजीनियरिंग काफी सफल रही।
उन्होंने अपने नाम से कैंटीन से लेकर पानी और नमक तक की जो सहज और सस्ती उपलबधता दिलाई, गरीबों और आमजनों को वो खूब भाई। यहां भी महिला वोटों का प्रतिशत जयललिता के पक्ष में रहा, क्योंकि कुल 74 प्रतिशत मतदान हुआ था उसमें महिलाओं का प्रतिशत 82 था। साफ है कि महिलाओं ने ‘अम्मा’ के जिताने में कोई कसर नहीं छोड़ी और एक इतिहास रच केरल में कांग्रेस नेतृत्व वाला युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) जो कि अब तक सत्ता में रहा, भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहा है।
केरल में ओमन चांडी की सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त रही। चुनावों में उसके लिए यही सबसे बड़ा मुद्दा रहा जो अंतत: ले डूबा। विपक्षी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) का नेतृत्व वी.एस. अच्युतानंदन कर रहे हैं।
पुदुच्चेरी में कांग्रेस और डीएमके के गठबंधन ने जीत हासिल की है। दोनों ने मिलकर 30 में से 17 सीटों पर कब्जा कर लिया। इसमें भी कांग्रेस ने अकेले 15 सीटें जीतीं। गौरतलब है कि भाजपा अपना खाता तक नहीं खोल पाई।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये इनके निजी विचार हैं)
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