23 मार्च, 1931 की सुबह ‘ट्रिब्यून’ अखबार पढ़ते समय भगतसिंह का ध्यान पुस्तक-परिचय स्तंभ पर जा टिका जिसमें रूस में समाजवाद के संस्थापक ‘लेनिन’ के जीवनचरित्र की आलोचना छपी थी। भगतसिंह इस जीवनचरित्र को पढ़ने के लिए बेचैन हो उठे। उन्होंने जेल के वार्डन द्वारा अपने मित्र, प्राणनाथ मेहता वकील के पास गुप्त पत्र भेजा, जिसमें लिखा था, ‘‘अन्तिम वसीयत के बहाने तुरन्त मुझ से मिलो। पर लेनिन का जीवन चरित्र लाना न भूलना।’’
इधर यह सब हो रहा था, उधर हाईकोर्ट ने सरदार किशनसिंह का प्रार्थनापत्र अस्वीकार कर दिया और सरकारी वकील कार्डन नौड ने हाईकोर्ट से फांसी देने का हुक्म भी हाथोंहाथ ले लिया। इस बात को पूरी तरह गुप्त रखा गया था, फिर भी यह खबर चारों ओर फैल गई और यह स्पष्ट दिखने लगा था कि कल सुबह फांसी होगी।
उसी दिन अन्तिम मुलाकात के लिए भगतसिंह के परिवार के लोग आए, परन्तु जेल अधिकारियों ने यह कहकर कि केवल रक्त-सम्बन्धी (माता-पिता, भाई-बहन) ही मिल सकते हैं, मुलाकात करने में बाधा उपस्थित की। भगतसिंह के माता-पिता यह कैसे स्वीकार कर सकते थे कि दादा-दादी और चाचियां अन्तिम बार भगतसिंह को न देखें? जेल अधिकारी सब को मिलने देने के लिए तैयार नहीं हुए, तो भगतसिंह के माता-पिता बिना अन्तिम मुलाकात किए ही लौट गए।
जब बाहर यह सब हो रहा था तभी प्राणनाथ मेहता भगतसिंह की कालकोठरी में पहुंचे। उस दिन की भेंट के बारे में प्राणनाथ मेहता ने स्वयं लिखा है, ‘‘उस दिन मैं लगभग एक घण्टा भगतसिंह की कोठरी में उनके पास रहा। मैं बहुत बार उसी स्थान पर उनसे मिल चुका था। उनकी भूख हड़तालों और पुलिस के साथ अदालत के भीतर उनके साहसिक संघर्ष को अपनी आंखों से देख चुका था, परन्तु मैंने यह कभी अनुभव नहीं किया था कि वे इतने बहादुर, साहसी और महान हैं। मैं जानता था और वे भी जानते थे कि मृत्यु का क्षण निकट आ रहा है। घड़ी की सुइयां फांसी के समय की ओर तेजी से बढ़ रही हैं, पर इसके बावजूद मैंने उन्हें प्रसन्न मुद्रा में पाया। उनके चेहरे पर रौनक ज्यों की त्यों थी और जब मैं उनके पास पहुंचा, वे पिंजरे में बन्द शेर की तरह टहल रहे थे।
‘‘मेरे कोठरी में पैर रखते ही, उन्होंने अपने खास लहजे में पूछा, आप वह पुस्तक ले आए ? मैंने ‘क्रान्तिकारी लेनिन’ उन्हें थमा दी। उसे देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए।
‘‘मैंने कहा-देश के लिए अपना सन्देश दीजिए। उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया-‘साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद, इन्कलाब-जिन्दाबाद’।
‘‘मैंने उनकी मनोभावनाओं को जानने के लिए पूछा, आज आप कैसा महसूस कर रहे हैं? उनका संक्षिप्त उत्तर था-‘मैं बिल्कुल प्रसन्न हूं’।
‘‘मैंने पूछा, आपकी अन्तिम इच्छा क्या है? उनका उत्तर था, बस यही कि फिर जन्म लूं और मातृभूमि की और अधिक सेवा करूं। उन्होंने मुकदमे में दिलचस्पी लेने वाले नेताओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की और अपने मित्रों, खासकर फरार साथियों, के लिए शुभकामनाएं दीं। अजीब बात यह थी कि मृत्यु के वातावरण से मेरी आवाज में कंपकंपी थी, पर भगतसिंह तन मन से पूर्ण स्वस्थ थे। वे इतने निश्चिन्त थे कि मृत्यु के प्रति उनकी निर्भीकता और निर्लिप्तता को देख ऐसा लगा कि वह मनुष्य नहीं कोई देवता हैं।
‘‘लाहौर सेन्ट्रल जेल की चौदह नम्बर बैरक में कुछ और क्रान्तिकारी साथी थे। उसी दिन दोपहर को उन्होंने भगतसिंह के पास एक लिखित संदेश भेजा: सरदार, आप एक सच्चे क्रान्तिकारी की हैसियत से यह बताएं कि क्या आप चाहते हैं कि आपको बचा लिया जाए ? इस आखिरी वक्त में भी शायद कुछ हो सकता है। जेल के बाहर जनता की भीड़ उमड़ पड़ी थी, उत्तेजित जनसमूह इस तैयारी में था कि कल सुबह होने के पूर्व ही जेल की दीवार तोड़कर भगतसिंह और साथियों को जेल से निकाल लें। भगतसिंह ने उस पर्चे को पढ़ा, एक मुस्कुराहट उनके चेहरे पर बिखर गई और फिर गम्भीर हो उन्होंने निम्नलिखित पर्चा चौदह नम्बर बैरक के कैदियों को लिख भेजा:
‘जि़न्दा रहने की ख्वाइश कुदरती तौर पर मुझ में भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मेरा जि़न्दा रहना एक शर्त पर निर्भर करता है।
‘मेरा नाम भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी का मध्यबिन्दु बन चुका है और भारतीय क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जिन्दा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वह जाहिर हो जाएंगी और क्रान्ति का निशान मद्धिम पड़ जाएगा या शायद मिट ही जाए। लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी पाने की सूरत में भारतीय माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद की सम्पूर्ण शैतानी राक्षसी शक्तियों के वश की बात न रहेगी।
‘हां, एक ख्याल आज भी चुटकी लेता है। देश और इन्सानियत के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवां हिस्सा भी पूरा न कर पाया। अगर जिन्दा रह सकता तो शायद इनको पूरा करने का मौका मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।
‘इसके सिवा कोई लालच मेरे दिल में फांसी से बचे रहने का कभी नहीं आया। मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कौन होगा? मुझे आजकल अपने आप पर बहुत नाज़ है। मुझमें अब कोई ख्वाहिश बाकी नहीं है। अब तो बड़ी बेताबी से आखिरी इम्तहां का इन्तजार है। आरजू है कि यह और करीब हो जाए।’’
इस पत्र में भगतसिंह अपने जीवन की पूरी ऊंचाई के साथ हमारे सामने आ गए हैं। उन्होंने जो कुछ किया, वह अनुपम है, पर वे उतने से ही सन्तुष्ट नहीं हैं। वे मानवता के लिए अभी और बहुत कुछ करना चाहते थे। जिन्दा रहने की ख्वाहिश भी सिर्फ इसलिए थी, परन्तु जो कुछ होने जा रहा था उसका भी वे बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। मृत्यु को इतना निकट देखकर भी वे पूरी तरह शान्त एवं प्रसन्न थे। कोई भय, कोई घबराहट उनके चेहरे पर नहीं थी। जो व्यक्ति साथियों का सन्देश लेकर आया था वही भगतसिंह का सन्देश लेकर चलने लगा तो भगतसिंह ने कहा, ‘‘उनसे कहना यारो! बातें तो बहुत हो चुकी अब रसगुल्ले तो खिला दो।’’ थोड़ी ही देर में रसगुल्ले आ गए। भगतसिंह ने बड़ी प्रसन्नता के साथ रसगुल्ले खाए। यह उनके जीवन का अन्तिम भोजन था।
सभी कैदी इस समय अपनी कोठरियों से बाहर थे। असिस्टेंट जेलर ने सब से अपनी-अपनी जगह बन्द हो जाने को कहा। बन्द होने का समय तो शाम का होता है, अभी तो दोपहरी भी नहीं ढली थी। सभी के मन में प्रश्न उठा कि जरूर कोई खास बात है। सब ने शंका भरी निगाहों से एक-दूसरे को देखा और फिर चुपचाप अपनी-अपनी कोठरियों में चले गए। हां, खास बात तो आज ही थी। इतिहास में जो कभी नहीं हुआ था, वह होने जा रहा था। फांसी सदैव प्रातःकाल दी जाती है पर यहां तो दोपहर बाद ही तैयारियां आरम्भ हो गई थी। सभी नियमों-कानूनों का उल्लंघन कर ब्रिटिश सरकार ने शाम को ही फांसी देने का निर्णय कर लिया था।
लाहौर सेण्ट्रल जेल के चीफ वार्डर चतरसिंह को दोपहर बाद तीन बजे के लगभग यह सूचना दी गई कि आज शाम को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी दी जाएगी, इसलिए वह पूरी तरह व्यवस्था कर ले। चतरसिंह मधुर स्वभाव वाला ईश्वरभक्त मनुष्य था। सुबह-शाम पाठ किया करता था। उसे जब मालूम हुआ कि भगतसिंह की जिन्दगी के कुछ ही घण्टे बाकी हैं तो वह उनके पास गया और कहने लगा, ‘‘बेटा, अब तो आखिरी वक्त आ पहुंचा है। मैं तुम्हारे बाप के बराबर हूं। मेरी एक बात मान लो।’’
भगतसिंह ने हंसकर कहा, ‘‘कहिए क्या हुक्म है ?’’ चतरसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मेरी सिर्फ एक दर्ख्वास्त है कि अब आखिरी वक्त में तो ‘वाहे गुरू’ का नाम ले लो और गुरुवाणी का पाठ कर लो। यह लो गुटका तुम्हारे लिए लाया हूं।’’
भगतसिंह जोर से हंस पड़े और बोले, ‘‘आपकी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी, अगर कुछ समय पहले आप कहते। अब जबकि आखिरी वक्त आ गया है मैं परमात्मा का याद करूं तो वे कहेंगे कि यह बुजदिल है, तमाम उम्र तो इसने मुझे याद किया नहीं, अब मौत सामने नजर आने लगी है तो मुझे याद करने लगा है। इसलिए बेहतर यही होगा कि मैंने जिस तरह पहले जिन्दगी गुजारी है, उसी तरह मुझे दुनिया से जाने दीजिए। मुझ पर यह इल्जाम तो कई लोग लगाएंगे कि मैं नास्तिक था और मैंने परमात्मा में विश्वास नहीं किया लेकिन यह तो कोई न कहेगा कि भगतसिंह बुजदिल और बेईमान भी था और आखिरी वक्त मौत को सामने देखकर उसके पांव लड़खड़ाने लगे।’’
नहीं, उनके पांव नहीं लड़खड़ाए। वे तो इस समय अपने सबसे बड़े दोस्त से मुलाकात कर रहे थे। प्राणनाथ मेहता उन्हें लेनिन का जो जीवन चरित्र दे गए थे, वे, वे उसे पढ़ रहे थे। अभी उन्होंने कुछ पृष्ठ ही पढ़े थे कि उनकी कालकोठरी का ताला खुला और जेल अधिकारी ने कहा, ‘‘सरदारजी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है, आप तैयार हो जाएं।’’
भगतसिंह के दाहिने हाथ में पुस्तक थी। उन्होंने पुस्तक पर से बिना आंख उठाए बायां हाथ उन लोगों की ओर उठा दिया और कहा, ‘‘ठहरो, एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है।’’ भगतसिंह की आवाज़ में पूर्ण तेज था और पूरी प्रसन्नता थी। उनके इस प्रकार मुक्त स्वर को सुनकर जेल अधिकारी भौंचक्के रह गए। कुछ पैराग्राफ पढ़कर भगतसिंह ने पुस्तक छत की ओर उछाल दी और उचक कर खड़े हो गए और बोले, ‘‘चलो’’। भगतसिंह ने अपनी कोठरी को एक बार देखा और फिर बाहर आ गए। सुखदेव और राजगुरू भी अपनी कोठरियों से बाहर आ गए थे। तीनों ने प्यार से एक-दूसरे को गले लगाया। भगतसिंह ने कहा, ‘‘हमारे हाथों में हथकडि़यां न लगाई जाएं और हमारे चेहरे कण्टोप से न ढके जाएं।’’ उनकी यह बात मान ली गई
भगतसिंह बीच में थे, सुखदेव-राजगुरू दायें-बायें। क्षण भर के लिए तीनों रुके, फिर चले और चलने के साथ ही भगतसिंह ने गाना आरम्भ किया:
‘‘दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।’’
और फिर तीनों मिलकर इसे ही गाने लगे।
वार्डर ने आगे बढ़कर फांसी घर का काला दरवाजा खोला। भीतर लाहौर का अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर नियमानुसार खड़ा था। वह इन तीनों को खुला देखकर जरा परेशान हुआ, पर जेलर ने उसे आश्वस्त कर दिया। तभी भगतसिंह उसकी ओर मुड़े और बोले, ‘‘मजिस्ट्रेट महोदय, आप भाग्यशाली हैं कि आज आप अपनी आंखों से यह देखने का अवसर पा रहे हैं कि भारत के क्रान्तिकारी किस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं।’’
भगतसिंह के स्वर में व्याप्त सच्चाई से प्रभावित हो डिप्टी कमिश्नर जैसे पानी-पानी हो गया। भगतसिंह और उनके साथ फांसी के मंच की सीढि़यां चढ़कर ऊपर आ गए थे। उनके पैरों में न कंपकंपी थी, न लड़खड़ाहट और न चेहरों पर कोई घबराहट। तीन फन्दे लटक रहे थे। तीनों वीर उसी क्रम में उनके नीचे आ खड़े हुए, बीच में भगतसिंह, दाएं राजगुरू और बाएं सुखदेव। तीनों ने एक साथ सिंह गर्जना की ‘‘इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।’’
तीनों ने अपना-अपना फन्दा पकड़ा और उसे चूमकर अपने ही हाथ से गले में डाल दिया। भगतसिंह ने पास खड़े जल्लाद से कहा, ‘‘कृपा कर अब इन फन्दों को आप ठीक कर लें।’’ जल्लाद ने कब ऐसे लोग देखे थे ? कब ऐसे स्वर सुने थे ? डबडबाती आंखों और कांपते हाथों से उसने फन्दे ठीक किए, नीचे आकर चरखी घुमाई, तख्ता गिरा और तीनों वीर भारत-माता को अर्पित हो गए। समय था सन्ध्या सात बजकर तैंतीस मिनट।
(प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित और वीरेन्द्र सिंधु द्वारा लिखित पुस्तक ‘अमर शहीद भगत सिंह’ से साभार)
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