देवानिक साहा===
बढ़ते तापमान के कारण 2025 तक देश का सालाना कार्य-घंटा 3.6 फीसदी घट सकता है। यह बात संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट में कही गई।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी ‘जलवायु परिवर्तन और श्रम : कार्यस्थल पर गर्मी का प्रभाव’ रिपोर्ट के मुताबिक यदि यह माना जाए कि तापमान लगातार बढ़ते हुए कुल 2.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो 2055 तक दिन के कार्य-घंटे में होने वाला नुकसान बढ़कर 5.2 फीसदी और 2085 तक बढ़कर आठ फीसदी तक हो सकता है।
रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते तापमान का सर्वाधिक बुरा प्रभाव दक्षिण एशियाई देशों पर होगा। यूरोपीय और दक्षिण अमेरिकी देशों पर सबसे कम प्रभाव होगा।
रिपोर्ट के मुताबिक सर्वाधिक बुरे प्रभाव वाले देशों में रहेंगे बुर्किना फासो, कंबोडिया, पाकिस्तान और मालदीव।
मई महीने में भारत में अब तक का अधिकतम तापमान 51 डिग्री सेल्सियस राजस्थान के फालोदी शहर में दर्ज किया गया। तेलंगाना में मई महीने तक 315 लोगों की लू से मौत हो गई। इंडियास्पेंड की अप्रैल 2016 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक गत 23 साल में देश में लू से मरने वालों की संख्या 293 फीसदी या तीन गुना बढ़ी है।
सन 1901 में तापमान दर्ज करने का सिलसिला शुरू करने के बाद से 2015 तीसरा सबसे गर्म वर्ष रहा। 1992 और 2015 के बीच लू से देश में 22,563 लोगों की मौत हो चुकी है।
35 डिग्री सेल्सियस या इससे अधिक तापमान पर काम करने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंच सकता है और काम करने की क्षमता और उत्पादकता घट सकती है। बेहतर स्वास्थ्य और बेहतर उत्पादकता के लिए शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सिय से अधिक नहीं होना चाहिए।
रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक तापमान चार डिग्री सेल्सियस बढ़ने से कार्य-घंटे में 13.6 फीसदी गिरावट आ सकती है। यदि तापमान और बढ़े तो यह नुकसान और बढ़ सकता है।
भारत में 2085 तक कार्य-घंटे में आठ फीसदी गिरावट घटकर सात फीसदी रह सकती है, यदि तापमान वृद्धि को 2.4 फीसदी तक सीमित किया जा सके, लेकिन तापमान यदि 4 फीसदी बढ़ेगा, तो कार्य-घंटे का नुकसान बढ़कर 13.6 फीसदी तक पहुंच सकता है।
रिपोर्ट के मुताबिक 2070 तक दक्षिण भारत के बड़े हिस्से और पश्चिमी और पूर्वी घाट भी लू की चपेट में आ जाएंगे, जो अब तक अप्रभावित रहे हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक सबसे बुरा प्रभाव गरीबों और अकुशल श्रमिकों पर पड़ेगा।
एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की 2014 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि यदि जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक रवैये में कोई बदलाव नहीं आया, तो 2050 तक भारत को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 1.8 फीसदी के बराबर आर्थिक नुकसान हो सकता है और यह 2100 तक बढ़कर 8.7 फीसदी तक पहुंच सकता है।
एडीबी की ही रिपोर्ट में कहा गया था कि यदि तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने में सफलता मिल जाती है, तो देश को 2011 तक जीडीपी के दो फीसदी से कम नुकसान होगा।
जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी समिति के अनुमान के मुताबिक तापमान के श्रम पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण सदी के उत्तरार्ध में प्रभावित उद्योगों की उत्पादकता 20 फीसदी तक घट सकती है। उत्पादकता में आने वाली गिरावट की वजह से 2030 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को 2,000 अरब डॉलर तक का नुकसान हो सकता है।
(आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। ये लेखक के निजी विचार हैं) –आईएएनएस
फोटो: सिन्हुआ/आईएएनएस।
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