लखनऊ, 24 अक्टूबर । उत्तर प्रदेश में बसपा प्रमुख मायावती एक बार फिर से 2007 वाला करिश्मा दोहराने में लग गई हैं। पिछले काफी अर्से से मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ से उप्र की सत्ता में आने की रणनीति पर काम कर रही थीं, लेकिन पिछले कुछ दिनों में उन्होंने इसमें बदलाव करते हुए दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण (बीडीएम) गठजोड़ का रूप देने की कोशिश की है।
इस बार भी बसपा ने 2007 की तर्ज पर ही ब्राह्मणों पर भी फोकस करना शुरू किया है और इसके लिए 30 से ज्यादा ब्राह्मण सभाओं का कार्यक्रम रखा गया है, जिसकी अगुवाई पार्टी के ब्राह्मण चेहरे और मायावती के खास समझे जाने वाले सतीश मिश्रा कर रहे हैं। बीते हफ्ते में वे इलाहाबाद, कानपुर, फतेहपुर सहित कई जिलों सभाएं कर चुके हैं।
पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र इस समय पूर्वांचल में सुरक्षित सीटों को मथ रहे हैं। इस दौरान एक हफ्ते तक वह भाईचारा सम्मेलनों के जरिए ब्राह्मणों को पार्टी के साथ जोड़ने की कोशिश करेंगे। वह 24 अक्टूबर को जौनपुर में दो जगह सम्मेलन करेंगे। इसके बाद 26 अक्टूबर को बुंदेलखंड में झांसी के मऊरानीपुर में सम्मेलन होगा।
मायावती ने अपनी इस रणनीति में बदलाव का संकेत आगरा की रैली में दिया था। उन्होंने जोरदार तरीके से सफाई दी कि ‘तिलक तराजू और तलवार’ का नारा बसपा का नहीं, बल्कि भाजपा का प्रॉपेगैंडा रहा है। मायावती ने बाद की रैलियों में भी इस मुद्दे पर अपनी राय स्पष्ट की। उसके बाद में ब्राह्मण सभाओं का खुला ऐलान करके बता दिया कि वोटों की खातिर जो भी संभव होगा, जिसकी भी जरूरत होगी वो किया जाएगा, किसी भी चीज से परहेज नहीं है।
ब्राह्मणों पर फोकस करना बसपा के लिए इसलिए भी जरूरी हो गया है, क्योंकि प्रशांत किशोर के कांग्रेस के चुनाव प्रचार की कमान संभालने के बाद कांग्रेस ने ब्राह्मण वोटों पर जोर दिया है। शीला दीक्षित को उप्र में मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर उतारने के साथ ही सोनिया गांधी के बनारस दौरे में कमलापति त्रिपाठी को खास अहमियत दिया जाना भी इसी का हिस्सा रहा।
कांग्रेस को परंपरागत तौर पर ब्राह्मणों की पार्टी माना जाता रहा है और एक दौर में कमलापति त्रिपाठी और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं का उप्र में दबदबा रहा और इसके चलते उसे ब्राह्मणों का सपोर्ट भी रहा, हालांकि मंडल और अयोध्या आंदोलन के बाद ब्राह्मणों का भाजपा की ओर रुझान हो गया।
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि तिलक, तराजू और तलवार का नारा बसपा के संस्थापक कांशीराम का दिया हुआ है। ये नारा बसपा के लिए दलितों को एकजुट करने में सबसे कारगर हथियार साबित हुआ था। मायावती की सफाई भर से ये बात लोग कितना भूल पाएंगे, ये तो वक्त बताएगा।
सवाल उठता है कि क्या ब्राह्मण समाज भी मायावती पर 2007 की तरह इस बार भी उसी तरह से भरोसा करने को तैयार है?
(आईएएनएस/आईपीएन)