वेद प्रकाश शर्मा यानी वेद इस दुनिया में नहीं रहे। एक शख्सियत अलविदा हो गई। अब उनकी स्मृति शेष है। जिंदगी की जंग में वह हार गए। लेकिन कलम के इस योद्धा की उपलब्धियां हमारे एक पीढ़ी के बीच आज भी कायम हैं और जब तक वह पीढ़ी जिंदा रहेगी, उसे वो वदीर्वाला गुंडा बहुत याद आएगा। वेद जी ने 80 से 90 के दशक में सामाजिक उपन्यास का एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया। आज वह पीढ़ी पूरी तरह जवान हो गई है। वह एक दौर था जब लोगों उनके उपन्यासों को लेकर अजीब दीवानगी रहती थी। उनकी कलम बोलती थीं। लोग नई सीरीज का इंतजार करते थे। सामाजिक और जासूसी उपन्यास पढ़ने वालों की एक पूरी जमात थी।
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सस्पेंस, थ्रिलर उपन्यासों का एक बड़ा पाठक वर्ग था। वेद प्रकाश शर्मा, मोहन राकेश, केशव पंड़ित और सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे उपन्यासकारों का जलवा था। उस दौर के युवाओं में गजब की दीवानगी देखने को मिलती थी। जहां जाइए, वहां युवाओं के हाथ में एक मोटी किताब मिलती थी।
लेखकों की इस जमात में उस दौर के युवाओं में किताबों में पढ़ने एक आदत डाली। हलांकि साहित्यिक उपन्यासों के प्रति लोगों में इतना लगाव नहीं देखा गया जितना की सामाजिक उपन्यासों को लेकर लोगों ने दिलचस्पी दिखाई। एक उपन्यास लोग दो-से तीन दिन में फारिग कर देते थे।
कुछ एक ऐसे लोगों को भी हमने देखा जिनको उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था। कभी-कभी वे 24 घंटे में उपन्यास खत्म कर देते थे। उस पीढ़ी की जमात जब आपस में आमने सामने होती थी तो उपन्यासों और लेखकों पर बहस छिड़ जाती थी।
हमारे बगल में एक पड़ोसी हैं, अब उनकी उम्र तकरीन 52 साल हो चुकी है। जिस दिन वेद जी का निधन हुआ, उस दिन हम शाम हम चैपाल पर पहुंचे तो लोग यूपी के चुनावी चर्चा में मशगूल थे। तभी हमने यह संदेश दिया कि ‘वर्दीवाला गुंडा’ अब नहीं रहा। पल भर के लिए लोग स्तब्ध हो गए। फिर कयास लोग कयास लगाने लगे की कौन वदीर्वाला गुंडा..? क्योंकि उसमें 25 से 30 साल वाली साइबर और नेट युग की जमात भी रही। उसकी समझ में कुछ नहीं आया।
लेकिन जब हम उन उपन्यास प्रेमी की तरफ इशारा किया, क्या आप उन्हें नहीं जानते। कुछ क्षण के लिए वह ठिठके और अंगुली को वह दिमाग पर ले गए और तपाक से बोल उठे..क्या वेद प्रकाश जी नहीं रहे। हमने कहा हां। उन्हें बेहद तकलीफ पहुंची बाद में उन्होंने वेद जी और उनकी लेखनी पर प्रकाश डाला। रेल स्टेशनों के बुक स्टॉलों पर उपन्यासों की पूरी सीरीज मौजूद थी। सुंदर और कलात्म सुनहले अक्षरों में उपन्यास के शीर्षक छपे होते थे।
शीर्षक इतने लुभावने होते थे कि बिना उपन्यास पढ़े कोई रह भी नहीं सकता था। रेल सफर में समय काटने का उपन्यास अच्छा जरिया होता था। रहस्य, रोमांच से भरे जासूसी उपन्यासों में कहानी जब अपने चरम पर होती तो उसमें एक नया मोड आ जाता था। पाठकों को लगता था की आगे क्या होगा। जिसकी वजह थी की पाठक जब तक पूरी कहानी नहीं पढ़ लेता था सस्पेंस बना रहता था। उसे नींद तक नहीं आती थी।
हमारे एक मित्र हैं, उनकी लोकल रेल स्टेशन पर बुक स्टॉल है। उन दिनों उपन्यास से अच्छा कमा लेते थे। उनकी पूरी रैक उपन्यासों से भरी होती थी। उन्होंने बाकायदा एक रजिस्टर बना रखा था जिसमें किराए पर वेद जी और दूसरे लेखकों के उपन्यास पाठक ले जाते थे। उन दिनों उपन्यासों की कीमत भी मंहगी होती थी। लिहाजा, कोई इतना अधिक पैसा नहीं खर्च कर सकता था।
दूसरी वजह थी, एक बार कोई कहानी पढ़ ली जाती थी तो उसकी अहमियत खत्म हो जाती थी, उस स्थिति में फिर उसका मतलब नहीं रह जाता था। इसलिए लोग किराए पर अधिक उपन्यास लाते थे। इससे बुक सेलर को भी लाभ पहुंचता था और पाठक को भी कम पैसे में किताब मिल जाती थी। लेकिन किराए का भी समय निर्धारित होता था।
एक से दो रुपये प्रतिदिन का किराया लिया जाता था। जिन सीरीजों की अधिक डिमांड थी वह किराए पर कम उपलब्ध होती थी। 1993 में वेद जी का उपन्यास ‘वर्दीवाला गुंडा’ सामाजिक और जासूसी एवं फतांसी की दुनिया में कमाल कर दिया। इसी उपन्यास ने वेद को कलम का गुंडा बना दिया। जासूसी उपन्यास की दुनिया में उनकी दबंगई कायम हो गई।
कहते हैं कि बाजार में जिस दिन ‘वर्दीवाला गुंडा’ उतारा गया, उसी दिन उसकी 15 लाख प्रतियां हाथों-हाथ बिक गई थीं। इस उपन्यास ने बाजार में धूममचा दिया। इसकी आठ करोड़ प्रतियां बिकीं। वेद प्रकाश शर्मा के जीवन और रचना संसाद की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
इस उपन्यास में उन्हें इतनी बुलंदी दिलाई कि वह प्रतिस्पर्धियों से काफी आगे निकल एक नई पहचान बनाई। इस पर ‘पुलिसवाला गुंडा’ नाम की फिल्म भी बनी। उनके दूसरे उपन्यासों पर भी कई फिल्में बनीं। फिल्मों में उन्होंने स्क्रिप्ट राइटिंग भी किया। इसके अलावा दूर की कौड़ी, शाकाहारी खंजर जैसे चर्चित उपन्यास लिखे।
उन्होंने 170 से अधिक उपन्यास लिखा। विजय और विकास उनकी कहानियों के नायक हुआ कतरे थे। उनकी स्क्रिप्ट पर शशिकला नायर ने फिल्म ‘बहू मांगे इंसाफ’ बनाई।
वेद के पिता का नाम पंडित मिश्री लाल शार्मा था। वह मूलत: मुजफ्फरनगर के बिहरा गांव के निवासी थे। वेद एक बहन और सात भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके कई भाइयों की प्राकृतिक मौत हो गई थी। पिता की मौत के बाद उन्हें आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा। उनकी पारिवारिक और माली हालत बेहद खराब थी।
लेकिन कलम की हठवादिता ने उन्हें दुनिया का चर्चित उपन्यासकार बनाया। उनके तीन बेटियां और एक बेटा शगुन उपन्यासकार है। मेरठ आवास पर उन्होंने 17 फरवरी को इस दुनिया से रुख्सत लिया। बदलती दुनिया में आज इन उपन्यासों का कोई वजूद नहीं है।
यह सिर्फ रेलवे बुक स्टॉलों और वाचनालयों के अलावा घरों की शोभा बने हैं। इन्हें दीमक चाट रहें। साहित्य और उपन्यास की बात छोड़िए सामाजिक और जासूसी उपन्यासों को कोई पढ़ने वाला नहीं है। किताबों और पाठकों का पूरा समाज ही खत्म हो गया है। अब दौर साइबर संसार का है। इंटरनेट पीढ़ी को किताबों की दुनिया पसंद नहीं और न वह इसके बारे में अपडेट होना चाहती है।
साहित्य और समाज से उसका सरोकार टूट गया है। सिर्फ बस सिर्फ उसकी एक दुनिया है, जहां पैसा, दौलत और भौतिकता एवं भोगवादी आजादी के सपने और उसका संघर्ष है। निरीह और निर्मम साइबर संसासर ने हमारे अंदर एक अलग दुनिया का उद्भव किया है।
इसका सरोकार हमारी सामाजिक दुनिया से कम खुद से अधिक हो चला है। साहित्य, पुस्तकें और पाठकीयता गुजने जमाने की बात हो गई है। जिसकी वजह है कि हम निरीह और निरस संसार का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें बेरुखी अधिक है मिठास की रंग गायब है। चेहरे पर बिखरी वह मासूमिय और मुस्कराहट दिलों पर आज भी राज करती है।
तुम बहुत याद आओगे वेद.. बस एक विनम्र श्रद्धांजलि!
-प्रभुनाथ शुक्ल
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये लेखक के निजी विचार हैं)
–आईएएनएस/आईपीएन
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