सुपौल (बिहार), 2 जून| उत्तर बिहार में कोसी बेल्ट में पड़ने वाले इस जिले के बच्चे पढ़ाई के लिए ध्यान लगाते वक्त अत्यधिक गर्मी और सर्दी जैसी अनेकों मुसीबतों का सामना करते हैं। विकास से कोसों दूर इस जिले के बच्चों के लिए शिक्षा एक फटेहाल सपने की तरह है, जिसे वे अपने जर्जर स्कूल की गीली सतह पर बैठकर देखते हैं।
“मुझे पढ़ाई के लिए एक स्कूल चाहिए। कृपया मेरे लिए एक स्कूल की व्यवस्था कीजिए। पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं अपने परिजनों के लिए एक घर बनवाना चाहती हूं।” यह विनती 12 साल की संजना मंडल की है, जो वह संवाददाता से करती है। ऐसा करते हुए वह कोसी नदी के तट से उड़कर आ रही रेत से बचने के लिए अपना चेहरा ढक लेती है।
संजना उन हजारों बच्चों में से एक है, जिन्हें ग्रैंड कोसी महासेतु के निर्माण के लिए विस्थापित होना पड़ा है। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता नारायन जी चौधरी कहते हैं कि साल 2010 में अपनी जमीन और घर गंवाने के बाद 62 गावों के 70 हजार लोगों ने यहां से पलायन किया।
मुआवजा कुछ लोगों को ही मिल सका लेकिन साल दर साल यहां के विस्थापित लोगों को प्रकृति के गुस्से का सामना करना पड़ा है।
संजना का स्कूल-उत्करमेत मध्य विद्यालय इताहारी गांव में कोसी तट के करीब स्थित है। यह स्थान राष्ट्रीय राजमार्ग-57 (ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर) से तीन किलोमीटर दूर है।
संजना की तरह इस स्कूल में 352 छात्र हैं, जो कक्षा एक से आठवीं के बीच नामांकित है लेकिन इस स्कूल में कोई छत नहीं है, कोई शौचालय नहीं है और न ही यहां कोई बाड़ा है।
मुश्किलों से जूझते यहां के छात्रों और शिक्षकों को अच्छे दिनों का इंतजार है। इनका मानना है कि इन की स्थिति एक न एक दिन जरूर सुधरेगी लेकिन पटना में सत्ता की कुर्सी पर आसीन लोगों तक उनकी आवाज नहीं पहुंचती।
संजना ने अफसोस के साथ कहा, “कई लोगों ने हमसे पूछा है कि हम किस तरह की समस्याओं का सामना करते हैं। इतने साल बीत गए लेकिन अब तक कोई भी हमारे लिए बदलाव की बयार नहीं लेकर आया है। हमारे लिए अब तक कुछ नहीं बदला है।”
स्कूल के प्राचार्य दशरथ प्रसाद यादव भी असहाय नजर आते हैं। यादव ने कहा, “हमारे पास स्कूल का कोई भवन नहीं है और न ही चाहरदीवारी है। मेरे बच्चे यहां सुरक्षित नहीं हैं। हमारे पास यहां पढ़ाई जारी रखने के अलावा कोई चारा नहीं है। हम यह हालात नहीं चाहते लेकिन क्या करें।”
संजना के पिता योगेंद्र मंडल ने कहा कि एक समय उनके पास 60 एकड़ जमीन थी लेकिन अब सब पानी में मिल गया है। इसका मतलब यह है कि वह इस जमीन को बेच नहीं सकते और अपनी बच्ची को प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए भेज नहीं सकते।
इस तरह के हालात का सामना करने वाले योगेंद्र अकेले नहीं हैं। इताहारी गांव में इस तरह के दुर्भाग्य का सामना करने वाले 327 परिवार हैं। इनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। इन सबकी कहानी एक जैसी है।
इसी तरह की अनिश्चितता जिले के निर्मली और सरायगढ़ भापथियाही प्रखंडों के राय एवाम सरदार टोला, कतिया टोला, बालथरबा, भुलिया और धोली जैसे गावों पर है।
इन स्थलों पर स्कूल अपनी भूमिका अदा करने के लायक नहीं हैं। शिक्षा फटेहाल स्थिति में है। यह हालात तब है जब नीतीश सरकार ने राज्य में कई नए स्कूलों के निर्माण का दावा किया है।
झरखराही धोली माध्यमिक स्कूल में कक्षा आठवीं की छात्रा रीना ने भी उसी तरह की तस्वीर पेश की, जिस तरह की तस्वीर संजना ने पेश की थी। रीना ने कहा, “हमारे पास स्कूल का भवन नहीं है। हम बरसात में भीग जाती हैं। यह तो सिर्फ एक टूटी झोपड़ी है। हमें सर्दी और गर्मी से बचने का कोई रास्ता नहीं दिखता।”
बिहार सरकार ने साल 2005 से लेकर आब तक एक लाख अतिरिक्त क्लासरूम बनाने का दावा किया है। साथ ही सरकार ने 21,087 प्राइमरी स्कूल स्थापित किए हैं और 19581 प्राइमरी स्कूलों को मिडिल स्कूलों में बदला है। यह सब 2005 से 2015 के बीच के सरकारी आंकड़े हैं।
सरकार चाहें जो भी दावा करे लेकिन बिहार के सुपौल जिले में उसके सारे दावे बेकार साबित होते हैं। ऐसे में भला जिला प्रशासन क्या कर रहा है?
जिलाधिकारी बैद्यनाथ यादव इस पूरे हालात को टालने की कोशिश करते हुए आईएएनएस से कहते हैं, “हमारे पास इनके लिए विशेष फंड नहीं है।” साथ ही वह कह भी कहते हैं कि फटेहाल स्कूलों की तस्वीरें जिला प्रशासन से साझा की जाएं।
सहरसा संभागीय आयुक्त टी.एन. बिंदेश्वरी ने कहा कि उन्हें इस हालात की जानकारी नहीं है। वह कहती हैं, “मुझे इन बच्चों के इस हालात की जानकारी नहीं है। मैं स्कूलों के हालात का जायजा लेने के लिए अधिकारियों को कहूंगी।”
इस पूरे मामले पर बिहार के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी से भी सम्पर्क करने की कोशिश की गई लेकिन उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया।—आनंद सिंह
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