दुनिया के 16 देश पहले ही नारी की शक्ति को पहचान चुके हैं। उन्हें अपनी सेना में अग्रणी मोर्चे पर तैनाती या युद्धक भूमिका में सेवा देने की अनुमति प्रदान कर चुके हैं लेकिन जिस देश भारत में नारी को शक्ति स्वरूपा कहा जाता है, जिस देश की राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री तक नारी रह चुकी हों, उस देश में महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन पाने के लिए 17 वर्षों तक कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी, तब कहीं उन्हें सेना में स्थायी कमीशन मिल पाया है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? यह सब दरअसल बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन जब जागे तभी सवेरा। महिला अधिकारियों को सेना में स्थायी कमीशन देने के साथ ही महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिल गया है, इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय और नरेंद्र मोदी सरकार दोनों की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है।
रक्षा मंत्रालय ने भारतीय सेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन प्रदान करने के लिए औपचारिक आदेश जारी कर दिया है। इसी के साथ महिला अधिकारियों को सेना में बड़ी भूमिका निभाने के लिए अधिकार संपन्न बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया। उच्चतम न्यायालय ने 17 फरवरी, 2020 को भारतीय सेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन एवं कमांड पोस्ट दिए जाने का आदेश दिया था और इस आदेश के क्रियान्वयन के लिए केंद्र सरकार को तीन माह का वक्त दिया था। इस वक्त सेना में 300 से ज्यादा महिला अधिकारी 14 साल से ज्यादा अवधि के बाद भी काम कर रही हैं। इस वक्त थल सेना में 3.89 प्रतिशत, नौसेना में 6.7 प्रतिशत और वायुसेना में 13.28 प्रतिशत महिलाएं काम कर रही हैं।
महिला अधिकारियों को अब आर्मी एयर डिफेंस, सिग्नल्स, इंजीनियर्स, आर्मी एविएशन, इलेक्ट्रॉनिक्स एंड मैकेनिकल इंजीनियरिंग , आर्मी सर्विस कॉर्प्स , आर्मी ऑर्डिनेन्स कॉर्प्स , इंटेलीजेंस कॉर्प्स, आर्मी एज्युकेशनल कॉर्प्स और जज एंड एडवोकेट जनरल स्ट्रीम में स्थायी कमीशन मिलेगा। महिला अफसर वर्तमान में सिर्फ एईसी और जेएजी स्ट्रीम में काम कर रही हैं। रक्षा मंत्रालय को कोरोना काल के चलते निर्णय लेने में जरूर विलंब हुआ लेकिन देर आयद-दुरुस्त आयद। सरकार के इस निर्णय से महिला सशक्तीकरण को मजबूती मिलेगी, इसमें संदेह नहीं है।
भारत में 1950 में आर्मी एक्ट बना था जिसमें महिलाओं को सेना की स्थायी सेवा के लिए अयोग्य माना गया था। 42 साल बाद यानी जनवरी, 1992 में सरकार ने महिलाओं को पांच शाखाओं में अधिकारी बनाने की अधिसूचना जारी की। 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के सेना में स्थायी कमीशन पाने का रास्ता साफ किया। मतलब सेना से अपना हक पाने में इस देश की महिलाओं को 70 साल लग गए। ये सत्तर साल उनके लिए कितने त्रासद रहे होंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
गौरतलब है कि अभीतक सेना में 14 साल तक शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) में सेवा दे चुके पुरुष सैनिकों को ही स्थायी कमीशन का विकल्प मिल पा रहा था, लेकिन महिलाओं को यह हक नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सेना में महिलाओं को पुरुष अफसरों से बराबरी का अधिकार मिला है। रक्षा मंत्रालय की मंजूरी देकर वर्षों से संघर्षरत महिला सैन्य अधिकारियों के मनोबल में चार-चांद लगा दिए हैं। हालांकि यह बताना उचित होगा कि वायुसेना और नौसेना में महिला अफसरों को पहले से ही स्थायी कमीशन मिल रहा है।
भारतीय सेना में महिला अधिकारियों की नियुक्ति की शुरुआत वर्ष 1992 से हुई। आरंभ में महिला अधिकारियों को नॉन-मेडिकल जैसे- विमानन, रसद, कानून, इंजीनियरिंग और एक्ज़ीक्यूटिव कैडर में नियमित अधिकारियों के रूप में पांच वर्ष की अवधि के लिए कमीशन दिया जाता था, जिसे समाप्ति पर पांच वर्ष और बढ़ाया जा सकता था। वर्ष 2006 में नीतिगत संशोधन किया गया और महिला अधिकारियों को शाॅर्ट सर्विस कमीशन के तहत 10 वर्ष की सेवा की अनुमति दे दी गई, जिसे 4 वर्ष और बढ़ाया जा सकता था। वर्ष 2006 में हुए नीतिगत संशोधनों के अनुसार, पुरुष शाॅर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी 10 वर्ष की सेवा के अंत में स्थायी कमीशन का विकल्प चुन सकते थे, किंतु यह विकल्प महिला अधिकारियों के लिये उपलब्ध नहीं था। इस प्रकार सभी महिला अधिकारी कमांड नियुक्ति से बाहर हो गईं और वे सैन्य अधिकारियों को दी जानी वाली पेंशन की आवश्यक योग्यता को भी पूरा नहीं करती थीं, जो एक अधिकारी के रूप में 20 वर्षों की सेवा के पश्चात् ही शुरू होती है। संप्रति केवल भारतीय वायु सेना ही लड़ाकू पायलटों के रूप में महिलाओं को लड़ाकू भूमिका में शामिल करती है। साथ ही भारतीय वायु सेना में महिला अधिकारियों का प्रतिशत भी अन्य शाखाओं से काफी अधिक है।
सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों की पीठ ने यह भी कहा था कि महिलाओं की शारीरिक विशेषताओं का उनके अधिकारों से कोई संबंध नहीं है और इस तरह की सोच को बढ़ाने वाली मानसिकता अब बदलनी चाहिए। सच तो यह है कि इस मामले में 2010 में ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि शार्ट सर्विस कमीशन के जरिए सेना में भर्ती हुई महिलाएं भी पुरुषों की तरह स्थायी कमीशन की हकदार हैं। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के समय केंद्र केंद्र का कहना था कि सेना में यूनिट सिर्फ पुरुषों की है और पुरुष सैनिक महिला अधिकारियों को स्वीकार नहीं कर पाएंगे, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया था। सवाल यह है कि जब जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूएस, ब्रिटेन, डेनमार्क, फिनलैंड, फ्रांस, नॉर्वे, स्वीडन और इज़राइल जैसे देश महिलाओं को युद्ध में भूमिका निभाने की अनुमति बहुत पहले ही दे चुके हैं तो भारत जहां नारियों को अत्यंत आदर दिया जाता है, वहां इतने समय तक उनके अधिकारों से वंचित क्यों रखा गया?
वर्ष 2000 में कमीशन प्राप्त करने वाली लेफ्टिनेंट कर्नल मिताली मधुमिता वर्ष 2010 में काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए हमले के दौरान दिखाए गए अपने निर्विवाद साहस के लिये वीरता पुरस्कार पाने वाली भारत की पहली महिला अधिकारी हैं। इसके अलावा डॉ. सीमा राव जो ‘भारत की वंडर वुमन’ के रूप में जानी जाती हैं, भारत की पहली महिला कमांडो ट्रेनर हैं, जिन्होंने भारत के 15 हजार से अधिक विशेष बल के कर्मियों को प्रशिक्षित किया है। भारतीय सेना युद्ध के मोर्चे पर महिला अधिकारियों को लगाएगी या अभी भी उसकी हिचक बरकरार रहेगी, यह तो देखने वाली बात होगी लेकिन इतना तय है कि जब महिला सैन्य अधिकारियों को इतने अधिकार मिल गए हैं तो देश के लिए लड़ने का भी अधिकार देर-सवेर उन्हें मिलेगा ही। महिला सैन्य अधिकारी तान्या शेरगिल ने इस साल गणतंत्र दिवस की परेड की कमान संभालने का गौरव प्राप्त किया था। इस बात का जिक्र सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी टिप्पणी के क्रम में किया है।
रही बात दुनिया के देशों की तो वर्ष 2018 में ब्रिटिश सेना ने महिलाओं के अग्रणी युद्ध मोर्चे पर सेवा देने पर लगा प्रतिबंध हटाया था। उन्हें एलीट स्पेशल फोर्स में काम करने की हरी झंडी दी थी। अमेरिकी सेना में महिलाएं गैरयुद्धक भूमिकाओं में काम करती थीं। लेकिन 2016 में अमेरिकी सरकार ने महिलाओं को अग्रणी युद्ध मोर्चे पर काम करने की इजाजत दे दी। चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ग्राउंड फोर्स यानी लाल सेना में महिला अधिकारियों की संख्या 5 प्रतिशत या उससे भी कम है। इसका मतलब है कि पीएलएजीएफ के 14 लाख सैनिकों में महज 53 हजार महिलाएं हैं। पाकिस्तान की सेनाओं में 3400 महिलाएं कार्यरत हैं। इन्हें युद्धक भूमिका देने या न देने पर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कनाडा, इस्राइल व डेनमार्क ने 80 के दशक में अपनी सेनाओं में महिलाओं को लड़ाकू भूमिका में नियुक्ति दे दी थी। कनाडा ने 1989 में, इस्राइल ने 1985 में और डेनमार्क ने 1988 में यह काम शुरू किया था। हालांकि इस्राइल में महिलाओं को सेना में शामिल करने का काम 1948 में उसके गठन के साथ ही शुरू हो गया था। वहां महिलाओं का दो साल मिलिट्री में काम करना अनिवार्य है। 1980 के मध्य में नार्वे पहला नाटो देश बना था, जिसने महिलाओं को पूरी तरह लड़ाकू भूमिका निभाने की इजाजत दी थी। रूस की सेना में महिलाओं की संख्या 10 फीसदी से कम है। इनका भी लड़ाकू भूमिका निभाना स्पष्ट नहीं है।
यह कहने में शायद ही किसी को गुरेज हो कि जिस समय भारतीय सेना को राफेल जैसा युद्धक विमान मिल रहा है, उसी समय उसे परम साहस और उत्साह से भरी शक्ति स्वरूपा वीरांगना महिला सैन्य अधिकारी भी मिल रही हैं। अब यह उसके विवेक पर निर्भर करता है कि वह उनका उपयोग युद्ध के क्षणों में कैसे करता है लेकिन महिलाओं की काबिलियत पर संदेह करने का अब कोई कारण नहीं बचा है। महिलाओं ने हर मोर्चे पर अपने का साबित किया है। उसे और अधिक स्वयं को साबित करने की आवश्यकता नहीं है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
एजेंसी से प्राप्त उक्त लेख संपादित किये बिना अपलोड किया गया।
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