महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी का प्राकट्य संवत 1535 यानी ई.स. 1479 में रायपुर जिले के चम्पारण्य में अग्निकुंड में से हुआ। आप के पूर्वजो को साक्षात् भगवान ने ही यज्ञ में से प्रकट होकर आज्ञा की थी की जब उनके कुटुंब में 100 सोमयज्ञ पूर्ण होंगे तब स्वयं भगवान ही पुत्र रूप से उनके कुटुंब में प्रकट होंगे। आप के माता इल्लमागारुजी एवं पिता श्री लक्ष्मण भट्टजी दक्षिण में काँकरवाड़ गाँव के रहनेवाले तैलंग ब्राह्मण थे।
उस समय में भारत पर सनातन धर्म के विरोधी मुस्लिम राजाओ का शासन था। इस कारण हिन्दू धर्म की भावनाओ पर कई बार घात होता था। ऐसी राजकीय प्रतिकूल संकट की परिस्थिति में लोगो की धर्म भावना निर्बल होती जा रही थी। ऐसे समय समाज में फिर से सच्ची धर्मं भावना के प्रति निष्ठा जागृत करने के लिए परंब्रह्म परमात्मा भगवान श्री कृष्ण के मुखारविंद रूप अग्नि का ही प्राकट्य श्रीवल्लभाचार्यजी के रूप में हुआ। जिन जीवो का वरण भगवान ने स्वयं की प्राप्ति के लिए किया है उन जीवो को भगवान का यथार्थ ज्ञान का दान कर उन्हें प्रभु की प्राप्ति कराने के लिए ही आचार्यश्री का प्राकट्य हुआ।
आप ने वेद-गीता-ब्रह्मसूत्र-भागवत इन प्रमाण चतुष्टय की एक वाक्यता के आधार पर साकार ब्रह्म वाद का तत्वज्ञान मुख्यतः स्थापित किया और भगवान की प्राप्ति के तीन योग-कर्म योग ज्ञान योग एवं भक्ति योग का भी यथार्थ स्वरुप प्रकाशित किया। इन चारो प्रमाणों एवं इन प्रमाण चतुष्टय के अनुसार अन्य सभी प्रमाण शास्त्रो का अर्थ स्पष्ट करने के लिए आपने कई ग्रन्थ की रचना की । जिनमे से तत्वार्थदीपनिबंध, षोडश ग्रन्थ, ब्रह्मसूत्र पर अणु भाष्य नामक टीका, भागवत पर सुबोधिनीजी नामक टीका , पत्रावलंबन मुख्य कृतियाँ है।
ब्रह्म आनंद स्वरुप है और केवल स्वयं की लीला के लिए ही अनेक नाम-रूप-कर्म में इस जगत के रूप में विभक्त हुआ है। यह समस्त जगत ब्रह्म का ही कार्य होने से ब्रह्मात्मक है एवं ब्रह्म इस जगत का अभिन्न निमित्त उपादान कारण है। यह ब्रह्म आनंद स्वरुप साकार है। यही साकार ब्रह्मवाद नामक तत्व ज्ञान शास्त्रो के आधार पर आपश्री ने स्थापित किया। समस्त जड़-जीव रूप जगत इन्ही परंब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का ही कार्य एवं उनका ही रूप है।
वर्णाश्रम धर्म के नाम पर लोगो में जातिवाद को लेकर अज्ञान था वह दूर किया एवं यह समझाया कि वर्ण कोई जाति नही है किंतु वर्ण एक देव है जो जन्म-संस्कार-कर्म-जीविका से प्रकट होते है। जन्म से तो सभी शूद्र ही होते है।
आपश्री ने धर्म की सच्ची भावना लोगो में प्रकाशित की। धर्म भावना की अन्तःदृष्टि एवं बाह्य दृष्टि बतायी। भगवान की भक्ति ही धर्म भावना की मुख्य दृष्टि है और वह धर्म का अंतरंग पक्ष है । अन्य सभी धर्म ज्ञान-कर्म-तप-दान-वर्णाश्रम धर्म इत्यादि प्रभु में भक्ति प्रकट करने के लिए ही है यह सिद्ध किया ।
आज के युग में प्रभु की प्राप्ति के लिए सरलतम उपाय रूप भगवान की शरणागति एवं भक्ति है यह सिद्ध कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की साक्षात् आज्ञा से सभी के कल्याण केलिए पुष्टिमार्ग प्रकट किया। प्रभु की निरूपाधिक निष्काम भक्ति (प्रेम) उसी जीव को प्राप्त होती है जिस पर भगवान का अनुग्रह (पुष्टि) हो इसी कारण आप के सम्प्रदाय का नाम पुष्टिमार्ग है। इस पुष्टिमार्ग में प्रवेश के लिए किसी भी भेद भाव रहित सभी जीव योग्य है क्योंकि जीव भगवान का ही अंश होने से जीव मात्र को भगवान की भक्ति का अधिकार (योग्यता) है। किंतु जिस जीव पर प्रभु की कृपा है वही जीव इस भक्तिमार्ग में रूचि रखकर प्रवेश ले पाते है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने घर में ही प्रभु की सेवा भक्ति कर सकता है इसमे किसी भी पंडा या पुजारी को बीच में रखने की आवश्यकता नहीं है ऐसा सरल सिद्धांत स्थापित किया। आपने अपने जीवन काल में भगवान की स्वयं की इच्छा से ही श्रीनाथजी को गोवर्धन पर्वत पर से प्रकट कर श्रीनाथजी का मंदिर सिद्ध करवाया कि जिससे सभी दैवी जीव प्रभु की भक्ति कर पाये।
आप ने प्राणिमात्र के कल्याण के लिए तीन बार सम्पूर्ण भारत भ्रमण कर पुष्टिमार्ग प्रकट किया । दक्षिण में विद्यानगर में श्रीकृष्णदेव राजा की सभा मे श्रीवल्लभ ने शात्रार्थ कर साकार ब्रह्मवाद ही शास्त्रो का यथार्थ है यह सिद्ध किया। आपने अपने वंश को प्रकट कर पुष्टिसंप्रदाय रूप अविच्छिन्न परम्परा स्थापित कर आज के जीवो का भी कल्याण हो ऐसी सुन्दर व्यवस्था स्थापित की। देश -विदेश में आज इस पुष्टिमार्ग के अनुयायी करीब करोड़ से भी अधिक है। (*मुम्बई-गोकुल-सप्तम गृह कामवन)।
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