नई दिल्ली, 23 जुलाई | भारतीय कला को यूरोपीय यथार्थवाद के प्रभावों से मुक्ति तथा कला में भारतीय अंतर्दृष्टि का समावेश करने वाले आधुनिक चित्रकार सैयद हैदर रजा 94 वर्ष की अवस्था में शनिवार को हमें छोड़कर चले गए, लेकिन भारतीय चित्रकला के इतिहास में उनके ब्रश से टपका ‘बिंदु’ चिरंतन काल तक बना रहेगा।
रजा को साल 1981 में पद्मश्री, साल 2007 में पद्म भूषण और साल 2013 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। उन्हें पिछले साल फ्रांस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘दी लीजन ऑफ ऑनर’ से सम्मानित किया गया था।
मध्यप्रदेश के मंडला जिले के बाबरिया में उप वन अधिकारी सैयद मोहम्मद रजी और ताहिरा बेगम के घर जन्मे रजा 12 वर्ष की अवस्था से ही चित्रकला में हाथ आजमाने लगे थे और दमोह में स्कूली शिक्षा के दौरान ध्यान एकाग्र करने के लिए अपनी शिक्षिका द्वारा ब्लैकबोर्ड पर बनाया गया बिंदु ही अंतत: रजा की चित्रकला का उन्वान बना।
स्व. सैयद हैदर रजा फोटो: बी भट्ट
रजा के जीवन में 1947 घटनाक्रमों से भरा वर्ष रहा। इसी वर्ष उनकी मां की मृत्यु हुई और इसी वर्ष उन्होंने के.एच. आरा तथा एफ. एन. सूजा (फ्रांसिस न्यूटन सूजा) के साथ क्रांतिकारी बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की सह-स्थापना की।
इस समूह की पहली प्रदर्शनी 1948 में आयोजित हुई और इसी वर्ष उनके पिता की मृत्यु हुई तथा भारत के विभाजन के बाद चार भाइयों तथा एक बहन का उनका परिवार पाकिस्तान चला गया।
हाईस्कूल के बाद उन्होंने नागपुर कला विद्यालय और उसके बाद सर जे.जे. कला विद्यालय, बम्बई (1943-47) से आगे की शिक्षा ग्रहण की। उन्हें फ्रांस सरकार से छात्रवृति हासिल हुई और वह अक्टूबर, 1950 में पेरिस के इकोल नेशनल सुपेरियर डे ब्यू आर्ट्स विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करने फ्रांस चले गए।
पढ़ाई के बाद उन्होंने यूरोप भर में यात्राएं कीं और पेरिस में रहते हुए अपनी चित्रकला का प्रदर्शन जारी रखा। 1956 के दौरान उन्हें पेरिस में प्रिक्स डे ला क्रिटिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिसे प्राप्त करने वाले वह पहले गैर-फ्रांसीसी कलाकार बने।
फ्रांस में अभिव्यक्ति के चित्रण से निकल कर वृहद परि²श्यों के चित्रण तथा अंतत: इसमें भारतीय हस्तलिपियों के तांत्रिक तत्वों को शामिल करके उन्होंने पश्चिमी आधुनिकता की धारा के साथ प्रयोग जारी रखा।
उनके चित्र अभिव्यक्ति के चित्रण से लेकर परि²श्य चित्रकला तक विकसित हैं। 1940 के शुरुआती दशक में उनका झुकाव चित्रकला की अर्थपूर्ण भाषा और मस्तिष्क के चित्रण की ओर हो गया। 1970 के दशक तक रजा अपने ही काम से नाखुश और बेचैन हो गए थे और वे अपने काम में एक नई दिशा और गहरी प्रामाणिकता पाना चाहते थे और उस चीज से दूर होना चाहते थे, जिसे वे प्लास्टिक कला कहते थे।
इस दौरान उन्होंने भारत में अपनी जड़ों को तलाशते हुए अजंता व एलोरा की गुफाओं, बनारस, गुजरात तथा राजस्थान की यात्राएं की, जिसका परिणाम ‘बिंदु’ के रूप में सामने आया, जो एक चित्रकार के रूप में उनके पुनर्जन्म को दर्शाता है। बिंदु का उदय 1980 में हुआ और यह उनके काम को अधिक गहराई में, उनके द्वारा खोजे गए नए भारतीय ²ष्टिकोण और भारतीय संस्कृति की ओर ले गया।
सन् 2000 में उनके काम ने एक नई करवट ली, जब उन्होंने भारतीय अध्यात्म पर अपनी बढ़ती अंतर्²ष्टि और विचारों को व्यक्त करना शुरू किया तथा कुंडलिनी, नाग और महाभारत के विषयों पर आधारित चित्र बनाए।
1981 में उन्हें ललित कला अकादमी की मानद सदस्यता दी गई। 10 जून 2010 को वे भारत के सबसे महंगे आधुनिक कलाकार बन गए जब क्रिस्टी की नीलामी में 88 वर्षीय रजा का ‘सौराष्ट्र’ नामक एक सृजनात्मक चित्र 16.42 करोड़ रुपयों (34,86,965 डॉलर) में बिका।
उन्होंने भारतीय युवाओं को कला में प्रोत्साहन देने के लिए रजा फाउंडेशन स्थापना भी की, जो युवा कलाकारों को वार्षिक रजा फाउंडेशन पुरस्कार प्रदान करता है।–आईएएनएस
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