प्रज्ञा पालीवाल गौड़===
महापुरूषों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व समय एवं स्थान की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता। स्वामी विवेकानन्द की महिमा ऐसी विलक्षण है कि आज भी न केवल भारतवासी अपितु विदेषी भी उनका नमन स्नेह एवं आदर से करते हैं। स्वामी विवेकानंद का जीवन एवं उनकी विचारधारा संपूर्ण विष्व के असंख्य लोगों को प्रेरणा देती आ रही है। उनके ओजस्वी शब्दों ने न जाने कितने हतोत्साहित एवं निराश लोगों को आशा की किरण दिखाई है। उनके जीवन के प्रेरक प्रसंगों ने जिस प्रकार विचारशील एवं जागरूक अंतःस्थलों को झकझोरा और प्रेरित किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे अपने जीवनकाल की अपेक्षा आज के वर्तमान युग में और भी अधिक प्रासंगिक हो गए है।
वर्तमान पीढ़ी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। जीवनशैली, नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों में बदलाव आ रहा है। आज की युवा पीढ़ी विकास एवं आर्थिक उन्नयन के बोझ तले इतनी अधिक दब गई है कि वह अपने पारम्परिक आधारभूत उच्च आदर्शों से समझौता तक करने में हिचक नहीं रही है। परिणामतः सर्वत्र असंतोष, प्रेरणा का अभाव एवं बिना प्रयत्न किए ही बेईमानी के “शार्टकट” से समृद्धशाली बनने की प्रवृत्ति जन्म ले रही है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार और बुजुर्गों की आयु एवं उनकी राय के प्रति अनादर एक आम बात हो गई है।
संक्षेप में, समाज में भ्रष्टाचार एवं अनाचार बढ़ता ही जा रहा है। आम जनता प्रकाश में आने वाले नित नए घोटालों एवं अपराधों से अचंभित एवं आक्रांत है। राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार अपनी जड़े जमा चुका है। साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद समाप्त होने की बजाय अपना सिर उठा रहे हैं। आदर्शों की परवाह किए बगैर लोग अनैतिक तरीकों से स्व-हित सम्पादन में लगे हुए हैं। ऐसे समय में, समाज को पतन से बचाने के लिए स्वामी विवेकानन्द के ओजस्वी प्रेरक-विचारों की महती आवश्यकता है।
स्वामी विवेकानन्द एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे और उन्हें अपनी राष्ट्रीयता पर गर्व भी था। भारतीय संस्कृति एवं भारतीय धर्म के प्रति उनका गर्व एवं आदर शिकागों के धर्म संसद में उनके द्वारा दिए गए संभाषण से ज्ञात होता है जब उन्होंने कहा था “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की शिक्षा दी है… मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है” और फिर इतिहास में जाते हुए कहा- “मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अविशिष्ट अंग को स्थान दिया जिन्होंने दक्षिण भारत आकर इसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उसका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिल गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।”
स्वामी विवेकानंद के उपरोक्त कथन में भारत के लिए उनकी अपनत्व की भावना और ‘गर्व’ शब्द का चार बार प्रयोग महत्वपूर्ण है। वे साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और इनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता के अत्यन्त खिलाफ थे जो इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय से विद्यमान हैं। उनका मानना था यदि ये वीभत्स दानव नहीं होते तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। आज के इस युग में स्वामी विवेकानन्द के यह विचार कितने प्रासंगिक हैं।
स्वामी विवेकानन्द का दृष्टिकोण प्रगतिशील था। उन्होंने एक बार कहा था “मैं ऐसे भारत की आषा करता हूं जिसमें पुराने भारत के सद्गुणों का आज के युग के सद्गुणों में स्वाभाविक रूप से समावेश किया गया हो। नए युग के भारत का निर्माण अपने आप होना चाहिए न कि किसी अनाधिकार बल प्रयोग से।” उन्हें राष्ट्र के लिए कोई भी त्याग करने में आनन्द की अनुभूति होती थी। आज अवसरवादी व्यक्ति इनके विचारों से सबक लेकर देश सेवा से मिलने वाले आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं।
उनका मानना था कि हमें भारत को अनावश्यक विदेशी भावों एवं दबावों से बचाना होगा। अगर हम लोग राष्ट्रीय गौरव के उच्च शिखर पर आरोहण करना चाहते हैं तो हमें यह भी याद रखना होगा कि हमें पाश्चात्य देशों से बहुत कुछ सीखना बाकी है। पाश्चात्य देशों से हमें उनका आधुनिक शिल्प और विज्ञान सीखना होगा, उनके भौतिक विज्ञानों को सीखना होगा और उधर पाश्चात्य देशवासियों को हमारे पास आकर धर्म और आध्यात्म विद्या की शिक्षा ग्रहण करनी होगी। हमें अपने आप में यह विश्वास जगाना होगा कि हम संसार के गुरू हैं। अपने उदार हृदय, विशाल अनुभव तथा तुलनात्मक अध्ययन से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि मानव जाति का कल्याण पूर्व की आध्यात्मिकता और पश्चिम की भौतिकता के समन्वय और विचारों के आदान-प्रदान पर निर्भर है।
स्वामी विवेकानन्द सदैव भारतवासियों को पीढ़ियों की अज्ञानता की निद्रा से जगाने के लिए प्रयत्नशील रहे। इसके लिए उन्होंने लोगों से स्वयं के प्रति विश्वास जगाने का आह्वान किया। उनकी यह धारणा थी कि देश के अपकर्ष के जिम्मेदार अंग्रेज नहीं, अपितु हम स्वयं है। सदियों के शोषण के कारण गरीब जनता मानव होने तक का अहसास खो चुकी है। वे स्वयं को जन्म से ही गुलाम समझते हैं। इसी कारण इस वर्ग में विश्वास एवं गौरव जागृत करने की महती आवश्यकता है। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि कमजोर व्यक्ति वह होता है जो स्वयं को कमजोर समझता है और इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वयं को सशक्त समझता है वह पूरे विश्व के लिए अजेय हो जाता है। स्वामी विवेकानंद का प्रत्येक भारतीय के लिए संदेश था: ” जागो, उठो ओर तब तक प्रयत्न करो जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो।”
स्वामी विवेकानन्द साहस के मूर्तरूप थे । उन्होंने एक बार अपने शिष्य को लिखा था “मुझे कायरता से घृणा है, मैं कायरों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता हूं, मूझे राजनीति में भी विश्वास नहीं। मेरे लिए ईश्वर और सत्य ही पूरे विश्व की राजनीति है, इसके अतिरिक्त सब बेकार है।” वे मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे और मानते थे कि इन प्राचीन नैतिक मूल्यों का पालन प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में करना चाहिये। उन्होंने सार्वजनिक जीवन को आध्यात्म से जोड़ने का प्रयास किया। एक बार उन्होंने कहा था “बीस हजार टन के प्रलाप से बड़ा है एक आउंस मात्र का उन मूल्यों का पालन।” यह विडम्बना ही है कि गरीबी उन्मूलन के लिए इतनी अधिक एवं प्रभावी योजनाओं के बावजूद इनके सही दिशा में कार्यान्वयन के अभाव में आज स्वतंत्रता प्राप्ति के छः दशक बाद भी देश में इतनी बड़ी मात्रा में गरीबी व्याप्त है।
स्वामी विवेकानंद की अनेकानेक विशिष्टताओं में से एक थी प्रसिद्धि एवं नाम के प्रति उनकी उदासीनता। आज का युग तो प्रचार का युग हो गया है। व्यक्ति चाहे कोई काम न करे लेकिन उसका प्रचार तो अत्यावश्यक है। वहीं दूसरी ओर धर्म संसद में अपने अद्भुत भाषण वाली रात को किसी बच्चे की तरह यह विचार कर रोए थे कि अब उनका अनजाने सन्यासी का जीवन समाप्त हो चुका है। बाद में भी वे कई बार प्रसिद्धि के बाद खो चुकी शांति को याद कर व्यथित हो उठते थे। वे सादा जीवन परन्तु उच्च विचारों वाले महापुरूष थे लेकिन उन्होंने अपना नया जीवन करोड़ों भारतीयों के पुनरूद्धार हेतु अंगीकार कर लिया था।
महिलाओं के प्रति समाज के भेदभाव को देखकर भी स्वामी विवेकानंद चिन्तित थे। उन्होंने समाज का ध्यान महिलाओं को प्राचीन युग में बौद्धिक ओर आध्यात्मिक क्षेत्र में दिए गए उच्च स्थानों की ओर आकृष्ट किया था। वे चाहते थे कि वर्तमान युग में भी महिलाओं को वहीं ऊंचा दर्जा प्राप्त हो। उनका मानना था कि महिलाओं की स्थिति देश के विकास के स्तर की द्योतक है। बाल विवाह के वे कट्टर विरोधी थे और महिलाओं को अपना व्यवसाय व कार्यक्षेत्र चुनने की स्वतंत्रता देने के पक्षधर थे। आज भी महिलाएं बड़ी संख्या में निरक्षर हैं। महिलाओं की इस शोचनीय स्थिति को उन्हें शिक्षा एवं आर्थिक स्वावलम्बन प्रदान करके ही दूर की जा सकती है।
अन्त में यह कहना सही होगा कि स्वामी विवेकानन्द की देशभक्ति, भारतमाता के प्रति उनका स्नेह, देश की सांस्कृतिक धारोहर के प्रति उनका गर्व, उनका शैक्षिक दर्शन, महिलाओं एवं वंचित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति तथा निष्काम कर्म के प्रति उनकी वचनबद्धता आज भी उतनी ही प्रांसगिक है।
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