हमेशा याद रहेंगे रज़ा साहब…!

प्रेरणा श्रीमाली===

‘‘आप पहले मिल जातीं तो जैसलमेर में एक किला खरीद लेता….’’ एक ठहाके के साथ यह वाक्य कहा उन्होंने और मैं भी ज़ोर से हंस पड़ी।
मैं पेरिस के उनके घर में रियाज़ कर रही हूँ और वह अपने स्टूडियों में चित्र बना रहे हैं….।

मैं कुछ तेज़ ततकार (पैरों का काम) समाप्त करती हूँ और मुझे सुनाई देता है…. ‘‘साधो-साधो’’, और देखती हूँ कि रज़ा साहब पीछे कमरे की देहरी पर खड़े हैं और ताली बजा रहे हैं।
मैं उनके साथ सुबह का नाश्ता कर रही हूँ, उनकी प्लेट उठाना चाहती हूँ और वह इन्कार कर देते हैं, फिर स्वयं उठाकर धोने लगते हैं।

फाइल फोटो : सैयद हैदर रज़ा के साथ प्रेरणा श्रीमाली। (फोटो: जनसमाचार)

पहली बार किसी शास्त्रीय नृत्य के साथ काम करने की सोच के साथ उस नृत्य की पूरी जानकारी चाहते हैं, उसकी किताबें मुझसे मंगवाते हैं यह कहकर कि ‘‘श्रीमाली मुझे कथक को जानना है, तभी तो बात बनेगी….।’’

ऐसे थे महान चित्रकार सैयद हैदर रज़ा। जिनसे मैं 1993 में पहली बार पेरिस में एक लंच पर मिली और मैंने जाना कि वह हमसे भी ज्यादा भारत को महसूस करते हैं। उनके लिए तिरंगा झण्डा, भारत माँ, और भारतीय विचार का बहुत महत्व था। फिर वह मेरा नृत्य कार्यक्रम देखने पेरिस के ‘‘रोंपुआ थियेटर’’ में आए और कार्यक्रम के बाद सीढि़यां चढ़कर मुझसे ग्रीन रूम में मिले…. बस यहीं से आरम्भ हुआ एक बेहद आत्मीय रिश्ता जो उनके जाने के बाद भी कायम रहेगा।

रज़ा साहब के साथ जो कार्यक्रम करने का अवसर मुझे मिला वह एक बेशकीमती अनुभव है मेरी नृत्य यात्रा का। ‘रीचिंग फॉर ईच अदर’ – रज़ा साहब के चित्रों, अशोक वाजपेयी की कविता और मेरे कथक नृत्य की प्रस्तुति थी आविन्यों फेस्टिवल, फ्रांस के लिए। वर्ष 1995 के उस अन्तर्राष्ट्रीय नृत्य समारोह के पोस्टर पर रज़ा साहब की पेन्टिंग ही थीं और उस पेन्टिंग का इस्तेमाल हमारे शो में भी था।

बस उन्होंने वह विशाल ‘बिन्दु’ 2×6 मीटर के कैनवास पर बनाया था हमारे शो के लिए। उसे देखकर मैं अभिभूत थी, क्योंकि मैंने चाहा था कि मेरी नृत्य मुद्राओं को उनके बिन्दु का आधार मिले…. और वह साक्षात् उपस्थित था। बाद में उन्होंने जब अपने एक साक्षात्कार में यह कहा कि ‘‘दिस पेन्टिंग इज़ इन्सपायर्ड बाई प्रेरणा‘ज़ फुटवर्क…’’ तो मेरी आंखें नम हो गईं। इतना बड़ा कलाकार ही इतनी निःश्छल बात कह सकता है।

रज़ा साहब से जाना कि खुद अच्छा कलाकार होना ही काफी नहीं है, उस लौ को आगे कैसे और कौन ले जाएगा, इसकी सोच और जागरूकता भी जरूरी है। मुझे नहीं मालूम कि कोई और वरिष्ठ कलाकार अपने युवाओं को इस तरह प्रोत्साहित करता है जैसा रज़ा ने किया।

हर वर्ष जब हिन्दुस्तान आते थे तो उनके कमरे के बाहर युवा चित्रकारों की लाइन होती थी, जो उन्हें अपना काम दिखाने आते थे और रज़ा साहब वक्त भी देते थे और कुछ चित्र खरीद लेते थे – यह उस युवा चित्रकार के लिए कितना महत्वपूर्ण हो जाता होगा कि उसका पहला चित्र रज़ा साहब ने खरीदा।

कविता उनका एक और प्रेम था। उनके चित्रों में कई जगह कविताओं की पंक्तियां अंकित हैं – कबीर, ग़ालिब आदि की पंक्तियां और खुद भी कभी-कभी दोहराते रहते थे।

पिछले दो महीने से अस्पताल में थे। एक अद्भुत जिजीविषा वाला यह व्यक्ति जिसे कला ने इस तरह नवाज़ा कि उनकी अंगुलियों से निकले रंग अद्वितीय बनते चले गए और लगभग अपने अन्तिम समय तक वह चित्र बनाते ही रहे। हम उन्हें देखकर आश्चर्यचकित होते रहते थे कि दृष्टि और शारीरिक क्षमता धुंधला जाने पर भी वह कैनवास पर अद्भुत रंग बिखेर रहे थे।

यही तो होता है जब कलाएं उसमें रोपित साधना को फलीभूत करने लगती हैं।

मैं सौभाग्य मानती हूं कि रज़ा साहब से मुलाकात हुई और फिर एक पारिवारिक रिश्ता बना। वह हर हालात में उस अज्ञात देश में चले गए हैं और मुझे लगता है कि जानीन (उनकी पत्नी) से मिलकर अत्यंत शांत और संतुष्ट होंगे।

अनन्त स्मृतियां और स्नेह छवियां मानस पर हैं….

उस आत्मा को नमन जिसे हमने रज़ा साहब नाम से जाना।

(लेखक मशहूर कथक नृत्यांगना हैं)