‘किराए की कोख’ वाक्य सुनने में बहुत अटपटा सा लगता है। एक आम आदमी इस बात को पूरी तरह समझने में असमर्थ होता है। किराए की कोख का क्या मतलब है या इसकी जरूरत क्या है, ये सारे प्रश्न एकाएक दिमाग में आने लगते हैं। व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या ऐसा भी होता है?

हां, आधुनिक समय में इसका चलन बढ़ता जा रहा है और यह वरदान की जगह अभिशाप बनता जा रहा है। किराए की कोख के लिए अंग्रेजी में शब्द प्रचलित है- सरोगेसी।

हम सबसे पहले इस बात पर चर्चा करते हैं कि आखिर सरोगेसी है क्या? सरोगेसी शब्द लैटिन भाषा के ‘सबरोगेट’ शब्द से आया है, जिसका अर्थ होता है कि किसी और को अपने काम के लिए नियुक्त करना। यानी सरोगेसी का मतलब है- मां का विकल्प।

सरोगेट मां, एक ऐसी मां, जिसके गर्भ में किसी और पति-पत्नी का बच्चा पल रहा हो। इस प्रक्रिया में किसी और पति-पत्नी के स्पर्म और एग को एक लैब मंे फर्टिलाइज करके उससे बने भ्रूण को सरोगेट मां के गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। नौ महीने तक यह बच्चा सरोगेट मां के गर्भ में रहता है और नौ महीने के बाद जन्म लेने पर वह बच्चा उस पति-पत्नी का हो जाता है, जिनके स्पर्म और एग से भ्रूण बना था।

जब टेस्ट ट्यूब जैसी तकनीक से भी बच्चा प्राप्त करने में सफलता नहीं मिलती तो आखिरी रास्ता बचता है सरोगेसी का, जिससे इच्छुक दंपति को बच्चा पाप्त होता है।

समाज में प्रचलित हर तकनीक के दो पहलू होते हैं- एक लाभदायक और दूसरा हानिकारक। सरोगेसी के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। समाज में मेडिकल कारणों से जिनके बच्चे नहीं होते, वे न जाने कहां-कहां भटकते रहते हैं। हमारे समाज में बच्चा चाहने वाले मां-बाप का जिस स्तर पर भावनात्मक और आर्थिक शोषण होता है, वह सामाजिक व पारिवारिक शोषण की तुलना में कुछ भी नहीं।

नि:संतान दंपत्तियों को परिवार और समाज इतना बेबस कर देता है कि वे या तो उपाय बेचने वाले ठगों का शिकार बनते हैं या चिकित्सा विज्ञान की शरण में आकर उनके विकल्पों को आजमाते है। उनमें से ही एक है सरोगेसी या किराए की कोख। निसंतान लोगों के लिए यह एक बेहतरीन चिकित्सा विकल्प है। इसके माध्यम से वे संतान प्राप्त करने की खुशी हासिल कर सकते हैं।

सरोगेसी की जरूरत तब पड़ती है, जब कोई स्त्री गर्भ धारण करने में सक्षम नहीं होती है। सरोगेसी भी दो प्रकार की होती है- ट्रेडिशनल और जेस्टेशनल।

ट्रेडिशनल सरोगेसी में पिता के स्पर्म को किसी अन्य महिला के एग के साथ फर्टिलाइज किया जाता है। ऐसी सरोगेसी में बच्चे का जेनेटिक संबंध केवल पिता से होता है, जबकि जेस्टेशनल सरोगेसी में माता-पिता के क्रमश: एग और स्पर्म को परखनली विधि से फर्टिलाइज करके भ्रूण को सरोगेट मां के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है। इसमें बच्चे का जेनेटिक संबंध माता व पिता दोनों से होता है।

यह सही है कि किराए की कोख यानी सरोगेसी व्यावसायिक रूप ले रहा है, जिससे इसका दुरुपयोग हो रहा है। मगर गरीबी जो न कराए!

जानकारी के मुताबिक, किराए की कोख के मामले सर्वाधिक भारत में ही हैं। यदि पूरी दुनिया में साल में 500 से अधिक सरोगेसी के मामले होते हैं तो उनमें से करीब 300 भारत में ही होते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि कौन बनती है सरोगेट मां (किराए की मां)। भला दूसरे का बच्चा कौन अपने गर्भ में धारण करना चाहेगा? पर गरीबी ही सब कराती है। आमतौर पर 18 से 35 साल तक की महिलाएं सरोगेट मां बनने के लिए तैयार हो जाती हैं, जिससे उन्हें तीन-चार लाख रुपये तक मिल जाते हैं और उनके परिवार का भविष्य में भरण-पोषण होने में मदद मिल जाती है।

भारत-नेपाल बॉर्डर पर किराए की कोख का कार्य धड़ल्ले से चल रहा है। इस कारोबार का हेड ऑफिस नेपालगंज, पोखरा व काठमांडू बना हुआ है। यहां दिल्ली व मुंबई से कई लड़कियां अंडाणु दान करने आती हैं। इन अंडाणुओं को नेपालगंज व पोखरा स्थित एक टेस्टट्यूब सेंटर में फ्रीज करके रखा जाता है। इसके बाद आईवीएफ तकनीक से नेपाली महिलाओं को गर्भधारण कराया जाता है।

कुछ सूत्रों से यह भी ज्ञात हुआ है कि भारतीय मूल की युवतियों के अंडाणुओं को चीन, जापान व अन्य देशों में निर्यात किया जाता है।

आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों में भुखमरी का बोलबाला इस कदर है कि यहां की महिलाएं मजबूरी में किराए की कोख का धंधा करती हैं। आंध्र प्रदेश का यह क्षेत्र देश में सरोगेसी माताओं की शरण स्थली बनकर रह गया है। भारत में गुजरात के आणंद नामक मशहूर स्थान किराए की कोख का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है। यहां लगभग 150 से भी ज्यादा फर्टिलिटी सेंटर किराए की कोख की सेवाएं देते हैं।

अमेरिका में किराए की कोख से संतान प्राप्त करने का खर्च 50 लाख ज्यादा है, जबकि भारत में यह सुविधा सभी खर्चे मिलाकर मात्र 10 से 15 लाख में ही प्राप्त की जा सकती है। भारत में यह सुविधा सस्ती है इसलिए विदेशी किराए की कोख के लिए यहां आते हैं।

किराए की कोख वाली महिलाएं ज्यादातर गरीब और अशिक्षित पाई जाती हैं, जिससे उन्हें अपने शरीर से होने वाले कानूनी और मेडिकल नुकसान की समझ भी नहीं होती है। साथ ही इन महिलाओं को स्वीकार की गई पूरी रकम भी नहीं दी जाती है।

आज गरीब परिवारों की बेबसी के चलते संतान विहीन परिवार मुस्करा रहे हैं, मगर धन के लालच में लगातार बच्चे पैदा करने से सरोगेट माताओं की शारीरिक हालत सही नहीं है। इनकी देखरेख करने वाला कोई नहीं है। न तो सरकार इस पर कोई ठोस कदम उठा रही है और न ही वे लोग जो इनसे यह काम करवा रहे हैं।

हरियाणा की खाप पंचायतों ने एकजुट होकर सरकार से किराए की कोख पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है।

वर्तमान केंद्र सरकार ने सरोगेसी (नियमन) बिल 2016 पारित करके सरोगेसी की स्थिति को बेहतर और सीमित करने का प्रयास किया है। केंद्रीय कैबिनेट ने अपने बिल में कामर्शियल सरोगेसी पर रोक लगाई है। इस बिल के अनुसार, केवल निकट संबंधी ही सरोगेसी कर पाएंगे। नवविवाहित जोड़ों, प्रवासी भारतियों, विदेशियों, समलैंगिकों व अकेले व्यक्तियों को बच्चा प्राप्त करने के लिए किराए की कोख या सरोगेसी इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होगी।

शादीशुदा जोड़े शादी के 5 साल बाद ही सरोगेसी की अर्जी दे सकते हैं। इस बिल के आलोचकों की अपनी अलग राय है। इनका कहना है कि अब जो दंपति बच्चा पाना चाहते हैं उनके पास गिने-चुने विकल्प ही रह जाएंगे। इन लोगों ने यह आशंका भी व्यक्त की है कि प्रस्तावित कानून की वजह से चोरी-छिपे ढंग से एक गैरकानूनी उद्योग पनप उठेगा। साथ ही एकल दंपति को इससे वंचित करना अमानवीय और समानता के अधिकार के खिलाफ है।

वैसे देखा जाए तो किराए की कोख की सोच बहुत विवादित है। कई बार बच्चे को जन्म देने के बाद सरोगेट मां भावनात्मक लगाव के कारण बच्चे को देने से इनकार कर देती हैं। दूसरी ओर, कई बार ऐसा भी होता है कि जन्म लेने वाली संतान विकलांग या अन्य किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होती है तो इच्छुक दंपति उसे लेने से इनकार कर देते हैं।

इसलिए किराए की कोख मसले पर सरकार का चिंतित होना जायज है। इस नए बिल का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि गरीब महिलओं का अनुचित लाभ न उठाया जा सके। भारतीय महिलाएं क्या इसी काम के लिए बनी हैं। इस बिल का बचाव इस प्रकार भी किया जा रहा है कि एक सामान्य परिवार को बच्चे की आवश्यकता होती है, लिव इन रिलेशन आदि में नहीं। ऐसे रिश्ते तो कभी भी टूट सकते हैं, जिससे बच्चे का भविष्य असुरक्षित हो सकता है।

केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने सरकार द्वारा सरोगेसी पर विधेयक पारित होने के बाद अपनी राय इस प्रकार व्यक्त की है कि महिलाओं को अपना शरीर बेचने के स्थान पर लघु उद्योगों को अपनाना चाहिए, क्योंकि सरकार के अनुसार किराए की कोख का वाणिज्यिक स्वरूप दो अरब डॉलर का अवैध धंधा बन गया है। इस अवैध धंधे से कमजोर महिलाओं का शोषण होता है।

सरकार इसे व्यवसाय नहीं बनाना चाहती, महिलाओं को बच्चा निर्माण फैक्ट्री नहीं बनने देना चाहती। सरकार चाहती है कि किराए की कोख नि:संतान दंपतियों के लिए वरदान ही बनी रहे, अभिशाप न बनने पाए।

केंद्र सरकार जल्द ही किराए की कोख को लेकर एक कानून बनाने जा रही है। इस कानून के तहत भारत में महिलाएं अपने बच्चों सहित तीन संतानों को सफल जन्म देने के बाद अपनी कोख किराए पर नहीं दे सकेंगी।

दो बच्चों के जन्म में कम से कम दो साल का अंतर होना अनिवार्य होगा। इस कानून के अनुसार, 21 साल से कम और 35 साल से अधिक उम्र की कोई महिला सरोगेट मां नहीं बन सकेगी। इसलिए सरकार प्रयासरत है कि किराए की कोख जैसे विकल्प को वह सीमित व नियमबद्ध कर दे। (आईएएनएस/आईपीएन)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

–आईएएनएस