दलितों पर अत्याचार संबंधी एससी एसटी संशोधन विधेयक को संसद ने मंजूरी दे दी। संशोधित बिल से दलितों पर अत्याचार करने वालों की गिरफ्तारी के लिए पूर्व अनुमति लेने का प्रावधान दूर हो गया है।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक, 2018 गुरूवार को राज्यसभा में भी पारित हो गया। विधेयक 6 अगस्त को लोकसभा ने पारित कर दिया था।
केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने गुरूवार को राज्यसभा में संशोधन विधेयक, 2018 पेश किया।
बिन्दु-वार विवरण :
अनुसूचित जाति और जनजाति के किसी भी व्यक्ति पर किये गये अत्याचार के मामले में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरंभिक जांच कराने की जरूरत को समाप्त करने अथवा किसी आरोपी को गिरफ्तार करने से पहले किसी अधिकारी से मंजूरी लेने और अधिनियम की धारा 18 के प्रावधानों को बहाल करने के लिए धारा 18ए को इसमें शामिल किया गया है।
अधिनियम में शामिल की गई धारा 18ए में यह कहा गया है कि :
1. पीओए अधिनियम के प्रयोजन के लिए –
क. किसी भी व्यक्ति के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरंभिक जांच कराने की जरूरत नहीं होगी; अथवा
ख. किसी भी ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए, यदि आवश्यक हो, जांच अधिकारी को मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होगी, जिसके खिलाफ पीओए अधिनियम के तहत कोई अपराध करने का आरोप लगाया गया है और पीओए अधिनियम अथवा फौजदारी प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत उल्लिखित प्रक्रिया के अलावा कोई और प्रक्रिया लागू नहीं होगी।
2. किसी भी अदालत का चाहे कोई भी फैसला अथवा ऑर्डर या निर्देश हो, लेकिन संहिता की धारा 438 का प्रावधान इस अधिनियम के तहत किसी मामले पर लागू नहीं होगा।
पृष्ठभूमि :
2018 की फौजदारी अपील संख्या 416 (डॉ.सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य) में माननीय उच्चतम न्यायालय ने दिनांक 20 मार्च, 2018 को अपने फैसले में पीओए अधिनियम में संशोधन करने का निर्देश दिया है और पीओए अधिनियम के प्रावधानों को हल्का कर दिया है।
माननीय न्यायालय के निर्देश के अनुसार, संबंधित पुलिस उप-अधीक्षक द्वारा सात दिनों के भीतर आरंभिक जांच कराके यह पता लगाया जाएगा कि लगाये गये आरोपों के संबंध में पीओए अधिनियम के तहत कोई मामला बनता है या नहीं ।
एसएसपी से मंजूरी मिलने के बाद ही उपयुक्त मामलों में गिरफ्तारी की जाएगी।
ऐसी स्थिति में प्राथमिकी दर्ज करने में विलंब होगा और पीओए अधिनियम के प्रावधान पर कड़ाई से पालन में बाधा आएगी।
सात दिनों के भीतर आरंभिक जांच कराना भी मुश्किल साबित हो सकता है,क्योंकि पुलिस उप-अधीक्षक अधिकारी आम तौर पर पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं होते है।
माननीय न्यायालय के निर्देशों का एक और असर यह होगा कि प्राथमिकी दर्ज करने में विलंब होने से अत्याचार के शिकार लोगों को स्वीकार्य राहत राशि मिलने में भी देरी होगी, क्योंकि यह केवल प्राथमिकी दर्ज होने पर ही स्वीकार्य होती है।
यह मामला अत्यंत संवेदनशील होने के कारण देश में अशांति का माहौल बन गया था।
इसके परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार द्वारा 02 अप्रैल, 2018 को एक समीक्षा याचिका माननीय न्यायालय में पेश कर अपने ऑर्डर को वापस लेने एवं इसकी समीक्षा करने की गुजारिश की गई थी, लेकिन अब तक कोई राहत नहीं दी गई।
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