आज हम बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) को स्वतंत्रता आंदोलन के महानतम् नेताओं में से एक के रूप में देखते हैं, जो न केवल एक क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ के रूप में महान् थे, बल्कि शैक्षिक दृष्टि से भी एक विलक्षण बुद्धिजीवी थे।
बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) नेताओं की उस श्रेणी में थे, जिन्होंने ऐसे विशिष्ट कार्य किए, जिनके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, बल्कि उन्होंने स्वयं भी उपयोगी विषयों पर व्यापक लेखन किया, जो भावी पीढ़ियों के लिए अध्ययन योग्य है।
जाने माने समकालीन इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने अपनी पुस्तकों में से एक पुस्तक ‘मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया’ यानी ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ में बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) को अग्रणी पंक्ति में रखा है, जिनका जीवन एक असाधारण बुद्धिमता और राजनीतिक नेतृत्व की अभिव्यक्ति है।
जाने-माने अर्थशास्त्री, सामाजिक चिंतक नरेन्द्र जाधव ने छह खंडों और दो संस्करणों, क्रमशः ‘आम्बेडकर स्पीक्स’ और ‘आम्बेडकर राइट्स’ में आम्बेडकर के भाषणों और लेखों को अलग-अलग संकलित एवं प्रकाशित किया है।
बाबासाहेब बहु-आयामी व्यक्तित्व के धनी थे। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानव-विज्ञान और राजनीति जैसे अधिसंख्य विषयों में उनकी विद्वता ने उनमें एक स्पृहणीय भावना पैदा की, जिसके चलते वे किसी विषय में किसी से कम नहीं थे।
अत्यन्त चर्चित विषय ‘अधिक मूल्य के नोटों का विमुद्रीकरण’ की परिकल्पना बाबा साहेब ने उस समय की थी, जब वे अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे।
भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) अत्यन्त कल्पनाशील और दूरदर्शी थे।
बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) उस प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, जिसने विश्व के सर्वाधिक विविधता वाले राष्ट्र के लिए लोकतंत्र और व्यक्ति स्वातंत्र्य की रक्षा का संविधान का निर्माण किया।
यह संविधान दुनिया की आबादी के छठे हिस्से के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करता है। आप इस बात का सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास का समावेशी मॉडल तैयार करने के लिए कितनी अनुकरणीय बुद्धिमता की आवश्यकता पड़ी होगी।
शिक्षाविद् के रूप में बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) ने कहा था, ‘पिछड़े वर्गों को यह अहसास हो गया है कि आखिरकार शिक्षा सबसे बड़ा भौतिक लाभ है, जिसके लिए वे संघर्ष कर सकते हैं। हम भौतिक लाभों की अनदेखी कर सकते हैं, लेकिन पूरी मात्रा में सर्वोच्च शिक्षा का लाभ उठाने के अधिकार और अवसर को नहीं भूला सकते।
यह प्रश्न उन पिछड़े वर्गों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जिन्होंने तत्काल यह महसूस किया है कि शिक्षा के बिना उनका वजूद सुरक्षित नहीं है।
‘शिक्षा पर बल देने के मामले में बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने प्राचार्य जॉन डेवी से अत्यन्त प्रभावित थे।
बाबा साहेब अपनी बौद्धिक सफलताओं का श्रेय अक्सर प्रोफेसर जॉन डेवी को प्रदान करते थे। प्रोफेसर जॉन डेवी एक अमरीकी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और संभवत: एक सर्वोत्कृष्ट शिक्षा-सुधारक थे।’
बाबा साहेब आम्बेडकर (Baba Saheb Ambedkar) औपचारिक शिक्षा विदेश में प्राप्त करने के जबरदस्त समर्थक् थे। ऐसे समय में जबकि कानून की शिक्षा ब्रिटेन में प्राप्त करना अधिक लाभप्रद समझा जाता था, बाबासाहेब ने शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाने का निर्णय किया।
धर्म के बारे में बाबासाहेब के विचार
डाॅ. आम्बेकर ने मनमाड़ रेलवे वर्कर्स सम्मेलन में 1938 में कहा था ‘‘शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण चरित्र है। मुझे यह देख कर दुख होता है कि युवा धर्म के प्रति उदासीन हो रहे हैं। धर्म एक नशा नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों का कहना है।’
‘मेरे भीतर जो अच्छाई है या मेरी शिक्षा से समाज को जो लाभ हो सकता है, मै उसे अपने भीतर की धार्मिक भावना के रूप में देखता हूं।’
एकता में उनकी अटूट आस्था थी, जिसका अनुमान उनके इस कथन से लगाया जा सकता है, ‘जातीय रूप में सभी लोग विजातीय हैं। यह संस्कृति की एकता है,जो सजातीयता का आधार है।
मैं इसे अनिवार्य समझते हुए कह सकता हूं कि कोई ऐसा देश नहीं है जो सांस्कृतिक एकता के संदर्भ में भारतीय प्रायद्वीप का विरोधी हो।’
रचनात्कम कूटनीतिज्ञ
भारत की विदेश नीति को आकार प्रदान करने में उनके योगदान की कूटनीतिक समुदाय द्वारा अक्सर अनदेखी की जाती है।
भारत पर चीन के हमले से 11 वर्ष पहले बाबासाहेब ने भारत को चेतावनी दी थी कि उसे चीन की बजाय पश्चिमी देशों को तरजीह देनी चाहिए और तत्कालीन नेतृत्व से कहा था कि संवैधानिक लोकतंत्र के स्तम्भ पर भारत के भविष्य को आकार प्रदान करे।
1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि सरकार की विदेश नीति भारत को सुदृढ़ बनाने में विफल रही है।
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चीन के संदर्भ में आम्बेडकर भारत की तिब्बत नीति से पूर्णतया असहमत थे। उन्होंने कहा था कि ‘यदि माओ का पंचशील में कोई विश्वास है, तो उन्हें अपने देश में बौद्ध धर्मावलंबियों के साथ निश्चित रूप से पृथक व्यवहार करना चाहिए। राजनीति में पंचशील के लिए कोई स्थान नहीं है।’
आम्बेडकर ने लीग आफ डेमाक्रेसीज को अवांछित बताया। उन्होंने कहा ‘क्या आप संसदीय सरकार चाहते हैं? यदि आप ऐसा चाहते हैं तो आपको उन देशों को मित्र बनाना चाहिए, जहाँ संसदीय सरकार हैं।’
– गुरु प्रकाश
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