राजनीति ही असली पंथ और गुट निरपेक्षता है। यह जब-तब सिद्ध भी होता है फिर भी यह वोट का ही खेल है, जो राजनीतिक दल, किसी खास रंग में रंगे दिखते हैं। यही वह राजनीति है जहां कल के अछूत, आज एक ही थाली में खाते दिखते हैं तो हैरत वाला कुछ भी नहीं। वैसे भी भारत में एक बहुप्रचलित कहावत है ‘जैसी बहे बयार पीठ जब तैसी कीजै’।
कुछ इसी तर्ज पर लगता है कांग्रेस भी नरम हिंदुत्व की राह पर चल पड़ी है। कम से कम उप्र विधानसभा चुनाव के चलते, कांग्रेस के रुख में आया परिवर्तन तो यही संकेत दे रहा है। मिशन उत्तर प्रदेश के तहत, राहुल गांधी अपनी अयोध्या यात्रा के दौरान न केवल सबसे पहले प्रसिद्ध हनुमानगढ़ी मंदिर गए, बल्कि वहां 15 मिनट तक पूजा-अर्चना की, भगवान को भोग लगाया और मंदिर के महंत ज्ञानदास से मुलाकात की।
राहुल गांधी ने अपने और पार्टी के कल्याण के लिए आशीर्वाद मांगा जो मिला। मीडिया से बात करते हुए महंत ज्ञानदास ने राहुल गांधी की भूरि-भूरि प्रशंसा की, बड़ी बेबाकी से कहा- वो एक अच्छे इंसान हैं। राजनीतिज्ञों सी चतुराई नहीं हैं। राम मंदिर को लेकर किसी बातचीत के जवाब में महंत ज्ञानदास ने कहा ‘उनमें नेताओं से लटके-झटके नहीं हैं। इस मामले में राहुल क्या कहेंगे?’ जाहिर है, राहुल या सोनिया गांधी इस मामले में पक्षकार नहीं हैं और ये मामला सर्वोच्च न्याायलय में है।
बाबरी कांड के 24 बरस बाद गांधी परिवार का कोई सदस्य और कांग्रेस का आला नेता पहुंचा। इसे कांग्रेस के रुख में बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। सबको पता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में जात-पात का बोलबाला है। जितने भी प्रमुख दल हैं, सबका अपना जातिगत एजेंडा है। कोई हिंदू तो दलित-मुस्लिम तो कोई मुस्लिम-यादव वोट बैंक के सहारे अपने लिए जादुई अंक गणित खोज रहा है।
ऐसे में कांग्रेस अपने दम पर, खोया वजूद पाने यदि कुछ करना चाहती है तो उसे भी नेपथ्य से ही सही, कोई कार्ड तो खेलना ही होगा। उसे ब्राह्मण वोट भी साधने हैं, मुसलमानों को भी साथ लेना है और दलितों के बीच घुसपैठ भी जरूरी है। ऐसे में सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड भले ऑक्सीजन हो, लेकिन सावधानी रखनी होगी, क्योंकि यह खेल आग के शोलों के बीच जैसा ही है, जो कहीं इससे धधक न उठे।
27 बरस बाद जगी आस के बीच शह और मात के खेल में राहुल का दांव निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए एक जुआ है, क्योंकि 90 के दशक के बाद उत्तर प्रदेश में एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। हां, पहले सत्ता सबसे ज्यादा अगड़ों के पास ही थी। ऐसे में शीला दीक्षित को प्रोजेक्ट करना जरूर फायदे का सौदा होगा, क्योंकि सबको पता है नारायण दत्त तिवारी और वीर बहादुर सिंह कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे। फिलहाल सबकी निगाहें कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व पर है।
ऋतुपर्ण दवे===
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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