नई दिल्ली, 9 मार्च| अगर आप अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज कराने और पहचानपत्र पाने के लिए ऑनलाइन आवेदन करना चाहते हैं तो जरा ठहर जाइए! हो सकता है, आपका प्रयास बेकार चला जाए, क्योंकि निर्वाचन आयोग का कहना है कि वह ऑनलाइन आवेदन स्वीकार नहीं करेगा।
देश का शीर्ष चुनाव निकाय को डिजिटल होना पसंद नहीं है, जबकि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार का जोर ‘डिजिटल इंडिया’ पर है और चाहती है सार्वजनिक सेवाओं को ज्यादा से ज्यादा ऑनलाइन किया जाए।
दरअसल, इन पंक्तियों के लेखकने एक आरटीआई आवेदन दायर किया था। जो जवाब मिला, वह चौंकानेवाला है।
मैंने छह महीने पहले, 2 सितंबर, 2016 को अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज कराने के लिए राष्ट्रीय मतदाता सेवा पोर्टल (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट एनवीएसपी डॉट इन) पर आवेदन किया था। इसे निर्वाचन आयोग की सभी सेवाएं एक ही जगह प्रदान करनेवाला पोर्टल माना जाता है, जिसका निर्माण व रखरखाव पुणे की सी-डैक जीआईएसटी करती है।
मैंने इस पर मांगे गए सभी वैध दस्तावेजों को डिजिटल तरीके से दाखिल करते हुए ऑनलाइन आवेदन किया था। इसके बाद मुझे आयोग से पावती का एक एसएमएस मिला, जिसमें बताया गया कि मेरा आवेदन सफलतापूर्व दाखिल हो गया है और भविष्य में मेरे आवेदन की स्थिति जानने के लिए एक संदर्भ आईडी भी दिया गया।
इसके बाद मैं जितनी बार क्वेरी करता, वेबसाइट मेरे आवेदन की स्थिति ‘प्रक्रिया के तहत’ दिखाती रही।
लगातार तीन महीने के पीड़ादायक इंतजार के बाद पिछले साल 25 नवंबर को मैंने आरटीआई आवेदन दायर किया था।
दो महीने बीतने के बाद 9 फरवरी को यानी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव शुरू होने से ठीक दो दिन पहले निर्वाचन आयोग के सचिवालय से जवाब आया कि यह सुविधा ऑनलाइन उपलब्ध नहीं है।
गाजियाबाद में पहले चरण में ही 11 फरवरी को मतदान था।
आरटीआई आवेदन के जबाव पर आयोग के अवर सचिव और केंद्रीय लोक सूचना आयोग के अधिकारी सौम्यजीत घोष के हस्ताक्षर थे।
पांच महीने बाद यह जबाव पाकर मैं भौंचक रह गया। इससे तो बेहतर यह होता है कि मैं ‘डिजिटल इंडिया’ के चक्कर में पड़ने के बजाय पुराने तरीकों से ही निर्वाचन कार्यालय जाकर आवेदन करता तो शायद चुनाव तक मेरा नाम मतदाता सूची में दर्ज हो गया रहता।
आश्चर्य की बात यह है कि अगर ऑनलाइन सुविधा देनी नहीं है तो आयोग यह वेबसाइट चला क्यों रहा है? अगर आयोग यह सुविधा नहीं दे रहा है तो वेबसाइट पर ‘अंडर प्रोसेस (प्रक्रियाधीन) का संदेश क्यों दिखाया जा रहा था? वे पहले ही बता देते कि यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
वोट देने का मौका चूकने का अफसोस और निराशा से भरा मन लेकर मैंने सूचना आयोग के अधिकारी घोष से संपर्क किया। उन्होंने हालांकि कोई संतोषजनक जबाव नहीं दिया और मुझे निर्वाचन आयोग के आरटीआई अनुभाग के अधिकारी संतोष कुमार दुबे से संपर्क करने की सलाह दी।
दुबे के पास इस मामले का एक बेहद दिलचस्प जबाव था। उन्होंने कहा, “हमें बिना कोई औपचारिक प्रशिक्षण दिए डीओपीटी (कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग) द्वारा निर्वाचन आयोग संबंधी सवालों को संभालने का काम सौंपा गया है। हमारी इस आयोग की वेबसाइटों तक पहुंच भी नहीं है.. हमने इस संदर्भ में डीओपीटी को पत्र लिखा है कि आयोग से पूछे गए प्रश्नों का जबाव सही तरीके से मुहैया कराने के लिए हमारे लिए विधिवत प्रशिक्षण दिलाया जाए।”
अब मेरी रुचि खुद के मामले को आगे बढ़ाने के बजाय इस बात में हो गई कि आखिरकार ऑनलाइन दर्ज किए गए आवेदनों का क्या होता है? क्या उनका सचमुच कोई नतीजा निकलता है या नहीं, या फिर यह सरकार द्वारा आगे बढ़ाए जा रहे ‘डिजिटल इंडिया’ के दबाव में मुहैया कराया गया एक अप्रभावी टूल मात्र है।
मैंने इसके बाद उत्तर प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग से लखनऊ में संपर्क करने का फैसला किया। वहां विशेष ड्यूटी अधिकारी राकेश कुमार सिंह ने 13 फरवरी को मुझे बताया कि मतदाता सूची का निर्माण एक केंद्रीकृत प्रक्रिया के तहत दिल्ली स्थित निर्वाचन आयोग के मुख्यालय द्वारा किया जाता है। हालांकि उन्होंने मुझे अपने आवेदन के बारे में निर्वाचन आयोग के गाजियाबाद कार्यालय से पता करने की सलाह दी।
मैंने इस बार फोन पर बातचीत करने के बजाय। आयोग की वेबसाइट द्वारा उनके गाजियाबाद कार्यालय में यह शिकायत दर्ज कराई कि क्या ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम के तहत कोई ऑनलाइन काम हो रहा है?
आश्चर्यजनक रूप से अगली ही सुबह (14 फरवरी) को मेरे पास गाजियाबाद स्थित निर्वाचन आयोग के कार्यालय से फोन आया कि मेरे मामले को सुलझा लिया गया है और मेरा नाम मतदाता सूची में दर्ज कर लिया गया है। साथ ही किसी समस्या की स्थिति में मुझे स्थानीय तहसील कार्यालय में जाने की सलाह दी गई।
इस जबाव से उत्साहित होकर मैंने तुरंत अपने विधानसभा क्षेत्र (गाजियाबाद 56) की मतदाता सूची में अपना नाम ढूंढना शुरू किया और तुरंत ही मेरे क्षणिक उत्साह पर पानी फिर गया, क्योंकि उसमें मेरा नाम नहीं था।
इस पूरे मामले का एक ही संदेश था कि सरकार के ‘डिजिटल इंडिया’ के दावे में ‘फंसने’ के बजाय जरूरी सरकारी कामों को कागजी कार्रवाई के माध्यम से ही पूरा करें। मेरे अनुभव से मुझे यह भी पता चला कि सरकारी संस्थानों की प्रवृत्ति मामले को अन्य सरकारी संस्थान की तरफ ‘टरकाने’ की होती है।
मैंने इस संबंध में अपने मित्रों और फेसबुक-लिंक्डइन फॉलोवरों के बीच एक सर्वेक्षण भी किया, जिसमें बताया गया कि मतदाता पंजीकरण की ऑनलाइन प्रक्रिया केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कुछ हिस्सों में ही काम कर रही है। दिल्ली के बाहर रहनेवालों के लिए इस ऑनलाइन प्रक्रिया का कोई मतलब नहीं है।
अब मेरा इरादा स्थानीय तहसील कार्यालय जाकर नए सिरे से मतदाता पहचानपत्र के लिए आवेदन करने का है। –आईएएनएस
====निर्मल अंशु रंजन
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