राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर में चल रहे तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण वर्ग के समापन में मुख्य अतिथि के नाते आने के लिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणव मुखर्जी ने स्वीकृति दी है। इससे देश के राजनैतिक गलियारों में भारी हलचल की स्थिति देखने में आई।
डॉ. मुखर्जी एक अनुभवी और परिपक्व राजनेता हैं। अनेक सामाजिक और राष्ट्रीय विषयों के बारे में उनके निश्चित विचार हैं। संघ ने उनके अनुभव और परिपक्वता को ध्यान में रख कर ही उन्हें अपने विचार स्वयंसेवकों के सम्मुख रखने के लिए आमंत्रित किया है। वहां वे भी संघ के विचार सुनेंगे, शिक्षार्थियों से भी उनका प्रत्यक्ष मिलना होगा। इससे उन्हें भी संघ को सीधे समझने का एक मौका मिलेगा। विचारों का ऐसा आदान प्रदान भारत की पुरानी परम्परा है।
फिर इस बात का इतना विरोध क्यों हो रहा है?
यदि विरोध करनेवालों का वैचारिक मूल, उनकी लीक और लामबंदियों देखेंगे तो इस विरोध पर आश्चर्य नहीं होगा। भारत का बौद्धिक विश्व साम्यवादी विचारों के ‘कुल’ और ‘मूल’ के लोगों द्वारा प्रभावित था जो एक पूर्णतया अभारतीय विचार है। इसीलिए उनमें अत्यंत असहिष्णुता है और हिंसा का रास्ता लेने की वृत्ति है।
साम्यवादी विचार का वैश्विक अनुभव यहीं बात अधोरेखित करती है। अपने विचारों से भिन्न विचार के लोगों की बातें सुनने को वे ना केवल नकारते हैं अपितु ऐसा करने वालों का विरोध भी करते हैं। आप यदि साम्यवादी (वामपंथी) विचार के नहीं हो तो आपको दक्षिण पंथी ही होना चाहिए और इसलिए आप निषेध करने, रोके जाने, निंदा किए जाने लायक हो। वे आपको जाने बिना (क्यों कि आप वामपंथी नहीं हो ) आपका हर प्रकार से विरोध ही करेंगे। यह साम्यवादी परम्परा है। फिर भी ये लोग ही उदारता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते हैं। अकारण झूठ बोलना और दांभिकता इनके रक्त बीज( DNA ) में है।
कुछ वर्ष पूर्व तृतीय वर्ष के ऐसे ही समापन कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध समाजसेवी और सर्वोदयी विचारक डॉ. अभय बंग आए थे। महाराष्ट्र के सभी साम्यवादी और समाजवादी विचारकों ने संघ का निमंत्रण स्वीकार करने पर डॉ. बंग का विरोध किया था। उनके खिलाफ समाजवादी विचारों वाले पुणे से प्रकाशित मराठी ‘साधना’ साप्ताहिक में अनेक लेख भी प्रकाशित हुए।
डॉ. बंग का कहना था कि वहाँ जा कर भी मैं अपने ही विचार रखने वाला हूँ फिर यह आपत्ति और विरोध क्यों? मेरा सर्वोदय का सम्बंध जानते हुए भी संघ के लोग मुझे बुला रहे है इसमें संघ की उदारता दिखती है और उदारता की दुहाई देने वाले हमारे समाजवादी विचार के मित्रों की वैचारिक संकीर्णता इससे स्पष्ट हो रही है।
भारी विरोध के बावजूद वे कार्यक्रम में आए। उन्होंने अपना भाषण लेख के रूप में ‘साधना’ साप्ताहिक में प्रकाशित करने के लिए दिया क्योंकि इसी पत्रिका में उनके विरुद्ध अनेक लेख प्रकाशित हुए थे। परंतु ‘साधना’ के सम्पादक ने डॉ. अभय बंग का लेख प्रकाशित नहीं किया।
साम्यवादी और उस पाले के लोग विचारों के आदान प्रदान में विश्वास ही नहीं रखते है। क्यों कि आप उनसे असहमत नहीं हो सकते। केरल के प्रवास में कोल्लम में श्री केशवन नायर नाम के साम्यवादी ट्रेड यूनियन नेता से मेरा 2010 में मिलना हुआ।
उन्होंने स्थानीय समाचार पत्र में ‘वेदों में विज्ञान’ विषय पर दो लेख लिखे तो उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया। उसके बाद उन्हों ने स्थानीय समाचार पत्र में कम्युनिज्म के बारे में अनेक लेख लिखे और उसकी एक पुस्तक “बियोंड रेड(Beyond Red)” मुझे दी। उसके आवरण पर वे लिखते हैं, ‘‘ कम्युनिज्म तुम्हें केवल एक ही स्वतंत्रता देता है और वह है उनकी प्रशंसा करने की स्वतंत्रता।” ऐसे लोगों से, तथाकथित विचारकों से विचारों के लेन-देन की आप आशा कैसे रख सकते हैं?
पश्चिम बंगाल में जब कम्युनिस्ट शासन था तब संघ के प्रचार प्रमुख के नाते मेरा कोलकाता में जाना हुआ। वहाँ के पाँच प्रमुख समाचार पत्र के सम्पादकों के साथ अनौपचारिक बातचीत और परिचय का कार्यक्रम बना।
स्टेट्समैन, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आॅफ इंडिया, वर्तमान और कम्युनिस्ट विचार के एक अन्य समाचार पत्र के सम्पादकों से मिलने का प्रयास हुआ। कम्युनिस्ट विचार की पत्रिका को छोड़ कर सभी ने समय भी दिया और अच्छी चर्चा भी हुई। इन सभी लोगों के संघ के विचारों से सहमत होने की हमारी अपेक्षा भी नहीं थी पर उन्होंने संघ के विचार समझने के लिए समय दिया। केवल कम्युनिस्ट विचार की पत्रिका के सम्पादक ने समय देने से इंकार किया यह कह कर कि मुझे मेरा समय व्यर्थ नहीं गँवाना है।
ये है इनकी समझ, उदारता और लोकतांत्रिक व्यवहार। मैंने संघ कार्यकतार्ओं से कहा की यह वृत्ति ही सर्वथा अलोकतंत्रिक है। इसलिए जब जब मैं कोलकाता आऊँगा तब तब इनसे मिलने का समय माँगना।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में श्री दत्तात्रेय होसबले और मुझे संघ की बात रखने के लिए निमंत्रण मिला। हमने जाने का निर्णय भी लिया। वहाँ भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसका कार्य, विस्तार और प्रभाव भारतीय समाज जीवन में लगातार बढ़ता हुआ दिख रहा है, उस संघ को अपनी बात कहने तक का विरोध साम्यवादी मूल के तथाकथित विचारकों ने किया।
सीताराम येचुरी और एम. ए. बेबी जैसे लोगों ने उस फेस्टिवल का बहिष्कार केवल इसलिए किया कि वहाँ संघ को अपनी बात कहने के लिए मंच दिया जाएगा। जिस संघ के विचार को भारत के सभी राज्यों में लोग स्वीकार रहे है, समर्थन कर रहे है, सहभागी हो रहे हैं उस विचार को कहने का, समझने का भी अवसर नहीं देना चाहिए यह है इनकी उदारता और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य! इसके पीछे क्या मानसिकता होगी?
इन्हें आशंका है कि संघ की असलियत यदि सब लोग जान लेंगे तो कम्युनिस्टों ने संघ के विरुद्ध जो झूठा प्रचार चलाया है, अज्ञान फैलाया है, वह पर्दा हट जाएगा! वास्तविकता लोगों को पता चल जाएगी यह डर है!
कम्युनिस्टों का मूल विचार और उनकी यह फासिस्ट मनोवृत्ति पूर्णतया अभारतीय है।
इससे विपरीत एक अनुभव यह भी है। कुछ वर्ष पूर्व कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ चायना का प्रतिनिधि मंडल भारत आया था। उन्होंने संघ के लोगों से मिलने की इच्छा व्यक्त की।
मैं दिल्ली में था और वे झंडेवाला स्थित संघ कार्यालय केशव कुंज में मिलने आए थे। मुझे उन्होंने चीन की प्रसिद्ध दीवार का स्मृति चिन्ह भेंट किया। मेरे मन में प्रश्न आया कि ये एक राजकीय पार्टी के लोग है।
भारत आ कर विविध राजनैतिक दलों के लोगों को उनका मिलना तो समझ में आता है पर संघ से क्यों मिल रहे हैं ? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि ‘हम एक कैडर आधारित पार्टी है और आप एक कैडर आधारित संगठन है इसलिए हम विचारों के आदान प्रदान हेतु आए हैं ’। उस पर मैंने कहा ‘यह तो सच है पर हममें और आप में एक मूलभूत अंतर है।
आप राज्य सत्ता के लिए और राज्य सत्ता के द्वारा कार्य करते हैं और हम ना तो राज्य सत्ता के लिए और ना ही राज्य सत्ता के द्वारा कार्य करते है। हम सीधा समाज के साथ और समाज के बीच कार्य करते हैं।’
फिर भी हम सहजता से मिले। हमने मिलने से इंकार नहीं किया। यह भारतीय परम्परा है।
भारत के वैचारिक जगत में कम्युनिस्ट विचारों का वर्चस्व होने के कारण और कांग्रेस सहित अन्य प्रादेशिक एवं जाती आधारित दलों के पास अपने स्वतंत्र वैचारिक चिन्तकों के घोर अभाव के कारण या उनके तथाकथित चिन्तकों में कम्युनिस्ट मूल के लोग ही होने के कारण उदारतावाद, मानवता, लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म ऐसे जुमलों का उपयोग करते हुए कम्युनिस्ट वैचारिक असहिष्णुता का ही परिचय यह सब लोग कराते रहते हैं।
प्रणवदा के संघ के कार्यक्रम में आने के कारण फिर से इन सब की वैचारिक असहिष्णुता की पोल खुल रही है।
संघ के चतुर्थ सरसंघचालक श्री रज्जुभैय्या के कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ नेता के साथ घनिष्ठ सम्बंध थे। एक बार श्री गुरुजी के प्रयाग आगमन पर प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ चाय पान का आमंत्रण मिलने पर उन्होंने रज्जुभैय्या से कह कि मैं आना चाहता हूँ पर नहीं आऊँगा। कारण मेरे वहाँ आने से कांग्रेस में मेरे बारे में अनावश्यक चर्चा शुरू होगी।
श्री रज्जुभैय्या ने पूछा कि क्या आपके बारे में भी चर्चा होगी? तब उन्होंने कहा कि आपको पता नहीं है कि राजनीति कैसी होती है। तब श्री रज्जुभैय्या ने कहा हमारे संघ में एकदम अलग सोच होती है। यदि कोई स्वयंसेवक मुझे आपके साथ देख लेगा तो वह मेरे बारे में शंका नहीं करेगा। इससे विपरीत वह सोचेगा की रज्जुभैय्या उन्हें संघ समझा रहे होंगे।
क्या कांग्रेस के लोगों को प्रणवदा जैसे बेदाग, कद्दावर ( Towering ) नेता पर ऐसा विश्वास नहीं हैं? स्वयं दागदार चरित्र के और प्रणवदा की तुलना में कांग्रेस में कम अनुभवी ( junior) लोग पूर्व राष्ट्रपति जैसे परिपक्व और अनुभवी नेता को नसीहत क्यों दे रहे हैं? संघ के किसी स्वयंसेवक ने यह क्यों नहीं पूछा कि इतने पुराने कांग्रेसी नेता को हमने क्यों बुलाया है?
संघ की वैचारिक उदारता और संघ आलोचकों सोच में वैचारिक संकुचितता, असहिष्णुता और अलोकतांत्रिकता का यही फर्क है । भिन्न विचार के लोगों का पास में मिलकर विचार विमर्श होना यह भारतीय परम्परा है और इस तरह की वैचारिक अस्पृश्यता रखना और विचारों के आदान प्रदान का विरोध करना यह वृत्ति ही सर्वथा अभारतीय है।
प्रणबदा के संघ के आमंत्रण को स्वीकार करने से भारत के राजनैतिक और वैचारिक जगत में जो बहस छिड़ी है उससे अनेक तथाकथित उदार और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के हिमायती लोगोंका असली चेहरा सामने आ रहा है। यह एक अच्छा शकुन है। प्रणबदा ने भी इन सारे विरोधों के बावजूद आने का मन बनाया है और यह भी कहा है कि इन सबका उत्तर मैं नागपुर में ही दूँगा।
हम प्रणबदा का और उनकी इस दृढ़ता का स्वागत करते हैं।
– डो. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ