बृजेन्द्र रेही====
लोक उत्सवों (folk festivals) में गायों को खिलाने या गौ क्रीड़ा (Cows play) का महत्वपूर्ण स्थान है। कहा जाता है कि यह परंपरा अपने बदलते रूपों में कृष्ण युग (Krishna era) से चली आरही है। यहाँ प्रस्तुत है कृष्णनगरी नाथद्वारा (Nathdwara) के श्रीनाथजी (Shrinathji ) मन्दिर (temple) में दीपावली के अवसर पर होने वाली मनोहारी और रोमांचक गौ क्रीड़ा (cow playing) पर केन्द्रित एक फीचर।
वैदिक काल से गाय (Cow) , मातृत्व का पर्याय रही है। हमारी संस्कृति की जीवन-धारा और गाय का अनन्योन्याश्रित संबंध रहा है। ऐसे अनेक सामाजिक संस्कार हैं, जिनमें गाय की उपस्थिति के महत्व को प्रतिपादित किया गया है।
ग्राम्य जीवन में गाय की भूमिका को अनेक भक्त-कवियों ने अपनी रचनाओं में संजोया है। तात्पर्य यह है कि कालान्तर में और आज भी सुदूर ग्रामीण इलाकों में गाय को परिवार के एक सदस्य की मान्यता प्राप्त है।
गाय के बिना महा आराध्य कृष्ण की चर्चा अधूरी है। इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि सम्राट अशोक हों या चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य हों या हर्ष, कालिदास हों या सूरदास-सभी ने गौ-आराधना की है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कृषि-प्रधान देश में अब गाय का वह सम्मान नहीं है, जो कालान्तर में था।
मशीनी सभ्यता के प्रवाह में जीवन से जुड़ी अनेक मान्यताओं को बदल दिया है और उनकी जगह ले ली है कुंठाओं ने। इसी का दुष्परिणाम है कि हमारी लोक-संस्कृति दूषित होती जा रही है। फिर भी हमारे त्योहार और मेले लोक-जीवन के जीवंत बीज को आज भी संजोये हुए हैं। इन त्योहारों में दीपावली का त्योहार भी है।
यूं यह त्योहार देश भर में मनाया जाता है किन्तु कला की त्रिवेणी नगरी नाथद्वारा में इसकी छटा देखते ही बनती है। दीपावली और उसके दूसरे दिन अन्नकूट पर गौ-क्रीड़ा (cows play) देखकर दर्शक आनंदित हो उठता है।
नाथद्वारा के श्रीनाथजी मंदिर की गौशालाओं में हजारों गायें हैं। सबसे बड़ी गौशाला नाथूवास में है। इसके अलावा छोटी-बड़ी ग्यारह गौशालाएं और हैं।
गौ-क्रीड़ा के लिए दशहरे के दिन से ही नाथूवास में गायों का प्रशिक्षण शुरू हो जाता है। ब्रजवासी ग्वाले, जो प्रतिदिन गायों की देखभाल भी करते हैं, यह प्रशिक्षण देते हैं। दीपावली तक ये गायें क्रीड़ा (cows play) के लिए तैयार हो जाती हैं। वैसे, दशहरे के बाद से गायों का श्रृंगार भी शुरू कर दिया जाता है।
अष्टछाप के कवि परमानन्द दास ने गायों के श्रृंगार का वर्णन अपने पद में किया है। वे लिखते हैं- ‘श्याम खिरक के द्वार करावत गायन को सिंगार।’
गायों को विभिन्न रंगों से रंगा जाता है। उनकी पीठ पर छापे और मांडने बनाये जाते हैं। उनके सींगों पर लाल, पीला, काला, नीला और हरा रंग किया जाता है। फिर सिर पर पटिया (मोर पंख का अभूषण) बांधा जाता है। उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों की लीरियां लटकी होती हैं, जो गायों की आंखों पर झूलती रहती हैं। गले में मोती का हार और घंटियां बांधी जाती हैं तथा पैरों में पैंजनियां पहनाई जाती हैं। ये गायें इतनी सुन्दर लगती हैं कि दर्शक टकटकी बांधे देखता रहता है।
दीपावली के दिन दो किलोमीटर दूर नाथवास की गौशाला में मध्याह्न तक ये गायें मंदिर तक पहुंच जाती हैं। इस दिन ग्वाले सजते-संवरते हैं।
धोती, बगलबंदी, गले में उपरना, सिर पर वृन्दावनी टोपी पहनते हैं-सचमुच में शताब्दियों पुरानी ब्रज-संस्कृति की झांकी साकार हो जाती है।
ये ग्वाले श्रीनाथजी के मंदिर की परिक्रमा करते हैं और गाते हैं। उनके गायन में क्रीड़ा के लिए गायों को आमंत्रण होता है, जिसे कान-जगाई कहते हैं।
इसके बाद लाल दरवाजे के चौक और श्रीनाथजी (Shrinathji ) मन्दिर (temple) में गोवर्धन पूजा के चौक में गायों को ग्वाले खिलाते हैं। गौ-क्रीड़ा (cows play) का यह दृश्य रोमांचक किन्तु मनोहारी होता है।
ग्वाला एक हाथ से कूंपी (चमड़े का छोटा गुब्बारा जिसमें कंकड़ होते हैं), बजाता है और किलकारियां मारकर गायों को चिढ़ाता है। गाय उस ग्वाले पर लपकती हैं और कुछ दूर जाकर रुक जाती हैं।
दर्शक उस दृश्य को देखकर रोमांचित हो उठता है, उसकी सांस क्षण भर को रुक जाती है । इसलिए कि लपककर दौड़ती हुई गाय इस तरह लगती है जैसे अभी वह अपने नुकीले सींगों में ग्वाले को पिरो लेगी।
गौ-क्रीड़ा (cows play) का यह क्रम घण्टों चलता है। लगभग पांच सौ गायें इस दिन मंदिर आती हैं-झुण्ड के झुण्ड। देखते ही बनता है गायों का रूप और मधुर लगता है उनके गले में बंधी घंटियों का स्वर। सूरज डूबते-डूबते ये गायें ‘पायगा’ लौट जाती हैं। पायगा वह जगह है, जहां कभी बड़ी संख्या में हाथी-घोड़े बंधे रहते थे।
दूसरे दिन गोवर्धन पूजा के चौक में गोबर का विशाल गोवर्धन पर्वत बनाया जाता है। इस पर्वत को गिरिराज मानकर उसकी पूजा की जाती है और फिर नंदवंश की गाय द्वारा ‘पर्वत’ लंघाया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि चार सौ वर्ष पूर्व जिस गाय ने मथुरा के पास जतीपुरा में श्रीनाथजी के स्वरूप (मूर्ति) को दूध से स्नान कराया था, यह गाय उसी वंश की है। इस दिन भी गायों को खिलाया (Cow sports) जाता है।
गोवर्धन पूजा के बाद गायें, गौशाला ले जायी जाती हैं। इस दिन नाथद्वारावासी, अपनी गायों का भी श्रृंगार करते हैं। दीपावली के बाद भी कई दिनों तक सजी-संवरी गायें कस्बे में यत्र-तत्र देखी जी सकती हैं।
गौ-क्रीड़ा (cows play) और उनके श्रृंगार की परम्परा उत्तर प्रदेश में भी है, किन्तु धीरे-धीरे लोक जीवन की ये जीवंत परम्पराएं लुप्त होती जा रही हैं। क्या इन्हें जीवित रखना हमारा दायित्व नहीं है?
(यह फ़ीचर दैनिक हिन्दुस्तान के 14 नवंबर, 1984 के अंक में ‘सब गैयन ने घूमर खेली ’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था तथा बाद में ‘रुद्र पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रब्यूटर्स ‘द्वारा 2016 में प्रकाशित पुस्तक ‘”विन्यास’” में भी संकलित किया गया।)
===