नई दिल्ली, 07 जुलाई (जनसमा)। निर्वाचन आयोग ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्रपति चुनाव में प्रत्येक मतदाता को किसी भी उम्मीदवार को वोट देने या चुनाव में मतदान न करने या अपनी इच्छा और पसंद के अनुसार चुनाव में मत देने की स्वतंत्रता है। यह समान रूप से सभी राजनीतिक दलों पर लागू होगा और वे किसी भी उम्मीदवार के लिए मतदाताओं से वोट मांगने या उनसे अनुरोध करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे मतदाताओं से मतदान न करने का अनुरोध या अपील भी कर सकते है।
मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव, 2017 में कुछ मतदाताओं के मन में इस आशय का संदेह पैदा हो रहा है कि क्या किसी राजनीतिक दल का सदस्य अपनी पार्टी के निर्णय के खिलाफ मतदान करने पर भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के अधीन दल-बदल के आधार पर अयोग्य हो जाएगा या राजनीतिक दल द्वारा किसी विशेष तरीके से मतदान करने या मतदान न करने के लिए अपने सदस्य को कहने का निर्णय लेने पर दंड का पात्र हो जाएगा।
आयोग इस संदर्भ में यह स्पष्ट करना चाहता है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव में जिस तरह वोट देना अनिवार्य नहीं है उसी तरह भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में भी वोट देना जरूरी नहीं है। मतदाता के ‘चुनावी अधिकार’ को भारतीय दंड संहिता की धारा 171 ए (बी) में परिभाषित किया गया है।
आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि राजनीतिक दल अपने सदस्यों को किसी विशेष तरीके से मतदान करने या मतदान न करने के लिए कोई दिशा निर्देश या व्हिप जारी नहीं कर सकते और इससे उनके सामने कोई अन्य विकल्प नहीं बचता है, क्योंकि ऐसा करना भारतीय दंड संहिता की धारा 171 सी के अर्थ में अनुचित प्रभाव डालने के अपराध के समान होगा।
आयोग आगे भी यह स्पष्ट करना चाहता है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में मतदान लोकसभा या राज्य विधान सभा के सदस्य द्वारा सदन में दिये गये मतदान से अलग है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुल्दीप नैयर बनाम भारत संघ (एआईआर 2006 एससी 3127) मामले में कहा है कि क्या संविधान की दसवीं अनुसूची के प्रावधान राज्यसभा के चुनाव के मामले में लागू होंगे जहां राज्य विधान सभा का कोई सदस्य अपनी पार्टी के निर्देशों की अवहेलना करके मतदान करता है। जहां वोट खुले मतदान प्रणाली द्वारा दिए गए हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई भी मतदाता राज्यसभा चुनाव में इस प्रकार मतदान करने के लिए दसवीं अनुसूची के दंडनीय प्रावधानों को आकर्षित नहीं करेगा। उस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट की निम्नलिखित टिप्पणियों पर ध्यान दिया जा सकता है: –
(183) आईटी याचिकाकर्ताओं की यह दलील है कि किसी राज्य की विधानसभा द्वारा राज्य परिषद में सीटों को भरने के लिए होने वाले मतदान में दसवीं अनुसूची के सिद्धांत यह दर्शाते हैं कि खुले मतदान प्रणाली से पूरी निर्वाचन प्रक्रिया हतोत्साहित होती है इसके अलावा दसवी अनुसूची के अधीन अयोग्य होने का उनका डर भी व्याप्त रहता है, इससे चुनाव व्हिप जारी करने वाले राजनीतिक दल तक ही सिमट जाता है और उम्मीदवार ताकत के प्रदर्शन द्वारा निर्वाचित किया जाता है …… किहोतोहोलहन बनाम झछिल्लु (सुप्रा) में निर्धारित कानून के मद्देनजर यह तर्क देना सही नही है कि खुली मतदान प्रणाली से विधान सभा के सदस्य दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य ठहराए जाने के लिए सामने आ जाते हैं इसलिए संविधान का यह हिस्सा अलग उद्देश्यों के लिए है।
इससे पहले भी माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पशुपतिनाथ सुकुल बनाम नेम चंद्र जैन (एआईआर 1984 एससी 399) में यह आकलन किया कि राज्यसभा के चुनाव में राज्य विधान सभाओं के सदस्य द्वारा मतदान एक गैर-विधायी गतिवधि है और यह राज्य विधान सभा के अन्दर कोई कार्यवाही नही है। राष्ट्रपति के पद का चुनाव भी मतदाताओं द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेते है (संविधान का अनुच्छेद 54)। राष्ट्रपति चुनाव में एक सदस्य के रूप में निर्वाचीय कालिज के मतदाता या कथित निर्वाचीय कालिज और ऐसे चुनाव में मतदान संबंधित सदन से बाहर होता है और यह सदन की कार्यवाही का कोई हिस्सा नहीं होता है।
इसलिए कुलदीप नायर (सुप्रा) और पशुपति नाथ सुकुल (सुप्रा) के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट की ऊपर उद्धृत टिप्पणियां राष्ट्रपति चुनाव में समान रूप से लागू होंगी। तदनुसार आयोग की राय में राष्ट्रपति चुनाव में अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार वोट देना या न देना भारत के संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के दायरे में नहीं आएगा और मतदाताओं को वोट देने या न देने की स्वतंत्रता है।
Follow @JansamacharNews