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भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या बारबाडोस की आबादी के बराबर

-रूदल शाह को 1953 में गिरफ्तार किया गया था। 1968 में बरी कर दिए जाने के बावजूद वह 30 साल तक बिहार की मुजफ्फरपुर जेल में कैद रहीं।

-बोका ठाकुर को 16 वर्ष की उम्र में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें बिना मुकदमा चलाए 36 साल बिहार की मधुबनी जेल में हिरासत में रखा गया।

वर्ष 2014 के जेल के आंकड़ों के अनुसार, शाह और ठाकुर भारतीय जेलों में विचाराधीन 282,879 कैदियों में से केवल दो हैं। भारतीय जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की यह संख्या कैरेबियाई देश बारबाडोस की जनसंख्या के बराबर है।

उपलब्ध आंकड़ों का विश्लेषण समस्या की गंभीरता को स्पष्ट करता है। 2010 और 2014 के बीच 25 प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को एक साल से अधिक समय तक कैद करके रखा गया है।

सुनवाई, जांच या पूछताछ के दौरान हिरासत में रखे गए विचाराधीन कैदियों को दोषी साबित न होने तक निर्दोष माना जाता है। लेकिन अक्सर हिरासत में रहने के दौरान उन्हें मानसिक और शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है और बदहाली में दिन गुजराने पड़ते हैं।

विचाराधीन कैदियों को दो कारणों से कानूनी सहायता नहीं मिल पाती। पहला संसाधनों की कमी और दूसरा जेल परिसर में रहने के कारण उनके पास वकीलों से संपर्क करने के मौके बेहद सीमित होते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के 1980 के फैसले के बावजूद यह स्थिति है, जिसमें कहा गया था कि संविधान का अनुच्छेद 21 कैदियों को जीवन और आजादी के मौलिक अधिकार के तहत निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार देता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल में अंडरट्रायल्स प्रोजेक्ट के प्रबंधक अरिजित सेन ने कहा, “न्यायपालिका और सरकार ने स्वीकार किया है कि कई विचाराधीन कैदी गरीब होते हैं, जिन्हें मामूली अपराधों के आरोप में लंबी अवधि के लिए कैद कर दिया जाता है, क्योंकि वे अपने अधिकारों से अनभिज्ञ होते हैं और कानूनी सहायता नहीं जुटा सकते।”

वर्ष 2005 में प्रभाव में आई अपराध प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) की धारा 436ए के प्रावधानों के बावजूद विचाराधीन कैदियों को अक्सर वर्षो कैद में रहना पड़ता है। यह धारा जमानत के साथ या उसके बिना निजी मुचलके पर ऐसे विचाराधीन कैदियों की रिहाई का आदेश देती है, जो आरोप सिद्ध होने की स्थिति में अधिकतम कैद की आधी सजा भुगत चुके हों।

यह धारा उन पर लागू नहीं होती, जिन्हें उम्रकैद या मृत्युदंड मिलने की संभावना है। लेकिन जेल सांख्यिकी 2014 के आंकड़े दर्शाते हैं कि भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों के लिए दोषी करार दिए गए 39 प्रतिशत कैदियों को उम्रकैद या मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता।

भारत में 36 में से 16 राज्यों में 25 प्रतिशत से अधिक विचाराधीन कैदी 2014 में एक साल से अधिक कैद में बिता चुके थे। इस सूची में जम्मू एवं कश्मीर (54 प्रतिशत) सबसे ऊपर है, जिसके बाद गोवा (50 प्रतिशत) और फिर गुजरात (42 प्रतिशत) का स्थान आता है।

भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी ने सर्वोच्च न्यायलय को लिखे एक पत्र में 1,382 जेलों की अमानवीय स्थिति का विवरण दिया था।

इस पत्र के जवाब में राज्यों से मिली ठंडी प्रतिक्रिया के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में हर जिले में एक विचारधीन कैदी समीक्षा समिति (यूटीआरसी) का गठन करके सीआरपीसी की धारा 436 ए के तहत लाभ प्राप्त करने के पात्र विचाराधीन कैदियों की तत्काल रिहाई का निर्देश दिया था।

सेन ने कहा, “एक जुलाई, 2015 से 31 जनवरी, 2016 के बीच करीब 6,000 विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया था।”

हालांकि यह आंकड़ा भी बेहद छोटा था, इसके तहत भारतीय जेलों में कैद कुल विचाराधीन कैदियों में से महज दो प्रतिशत को ही रिहा किया गया था।

लंबित आईपीसी अपराधों की दर इस बात को स्पष्ट करती है कि परिवर्तन की प्रक्रिया कितनी धीमी होगी। 2014 और 2015 में यह दर क्रमश: 84 फीसदी और 86 फीसदी थी।

इसका एक मुख्य कारण निचली अदालतों में रिक्तियां हैं। भारतीय अदालतों में लंबित 2.5 करोड़ मामलों को निपटाने में कम से कम 12 साल लगेंगे।

एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक, पुलिस और कैदियों को सीआरपीसी की धारा 436 के बारे में बेहद कम जानकारी है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक, गैर कार्यात्मक यूटीआरसी, जेल रिकॉर्ड में विसंगतियां, सूचना प्रणाली का खराब प्रबंधन, प्रभावी कानूनी सहायता की कमी, पुलिस सुरक्षा और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं की कमी के कारण सुनवाई रद्द होने जैसे कई कारक हैं, जिनके कारण भारतीय जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या इतनी बड़ी है।

–आईएएनएस