श्रीनगर, 24 फरवरी | महाशिवरात्रि के अवसर पर कश्मीर उस दर्द को महसूस कर रहा है जो पिछले 27 साल से चली आ रही हिंसा ने उसे दिया है, जो याद दिला रहा है कि इन सालों में कश्मीर ने अपने मूल्यों, परंपराओं और विरासत में से क्या कुछ नहीं गंवा दिया है।
1990 में अलगाववादी हिंसा शुरू होने से पहले करीब 2 लाख कश्मीरी पंडित घाटी के शहरों, कस्बों और गांवों में रहते थे। आज महज तीन हजार रह रहे हैं, वह भी कड़ी सुरक्षा के साए में।
अधिकारियों ने कहा है कि महाशिवरात्रि के मौके पर कश्मीरी पंडितों के रिहाइशी इलाकों में निर्बाध बिजली दी जाएगी। लेकिन, यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि डर के साए में जी रहे इन लोगों की जिंदगी में कितनी रोशनी और मस्ती समा सकेगी।
फोटो : महाशिवरात्रि के अवसर पर एक मंदिर में पूजा-अर्चना करते भक्तगण। (फोटो : आईएएनएस)
उत्तरी कश्मीर के रहने वाले जहूर अहमद वानी (51) कहते हैं, “जब से हिंसा शुरू हुई है, तब से कश्मीरी पंडितों की तुलना में कश्मीरी मुसलमान अधिक मारे गए हैं। लेकिन, कश्मीरी पंडितों ने अपना घर, परिवार, अपनी जड़, विरासत को खोया है जो दुर्भाग्य से अब शायद कभी वापस मिल न सके।”
अन्य स्थानीय मुसलमान भी कश्मीरी पंडितों की इस त्रासदी के प्रति दुख जताते हैं। महाशिवरात्रि की छुट्टी वाले दिन उन्हें अपने राज्य का सुनहरा अतीत याद आ रहा है।
बडगाम जिले के निवासी अली मुहम्मद दार (72) को वो दिन शिद्दत से याद आ रहे हैं। उन्होंने कहा, “हमारे पड़ोस में धर परिवार रहता था। शिवरात्रि के दिन भोज का हम बेसब्री से इंतजार करते थे। यहां के पंडित इस दिन मछली और नादरु, बटे रोगनजोश, कालया, मचेगंद, कबारगाह जैसे व्यंजन खास तौर से तैयार करते थे।”
उन्होंने कहा, “यह सिर्फ भोज या साथ की गई मस्ती ही नहीं थी जो हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को बुनती थी। हम दो समुदायों के बीच रिश्तों की गर्मी कुछ अलग ही थी। आज हर कोई कश्मीरियत की बात कर रहा है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि अब यह नेताओं के भाषण और ड्राइंग रूम में होने वाली बहसों में सिमट कर रह गई है।”
शिवरात्रि की पारंपरिक पूजा श्रीनगर के गनपतयार मंदिर में और शंकराचार्य पहाड़ी स्थित शिव मंदिर में हुआ करती थी। स्थानीय रेडियो और टेलीविजन पर शिवरात्रि पर केंद्रित विशेष कार्यक्रम प्रसारित होते थे।
लेकिन, आज स्थानीय मुसलमानों के पास अपने पड़ोस के वो पंडित नहीं हैं जिन्हें वे इस दिन की बधाई दे सकें। पुराने श्रीनगर में इनके खाली-गिरे पड़े मकान इस बात की अफसोसनाक गवाही दे रहे हैं कि कश्मीर में मुसलमानों और पंडितों ने क्या खो दिया है।
कभी इन घरों में जिंदगी दौड़ती थी। आज यह भुतहे बन चुके हैं। इसी में छिपी है कश्मीर की त्रासदी कि भूत पड़ोसियों को अपनी खुशी अपने गम में शामिल होने का न्योता नहीं दिया करते।
यह तर्क बुजुर्ग कश्मीरियों की समझ में नहीं आता कि प्रवासन के बाद पंडित समुदाय की समृद्धि बढ़ी है, इनके बच्चों को एक नई दुनिया मिली है और इन्हें देश की बड़ी कंपनियों में अच्छी नौकरियां मिली हैं। बुजुर्ग कश्मीरियों का कहना है कि सह अस्तित्व किसी भी भौतिक सुख से बढ़कर है।
गांदेरबल के अवकाश प्राप्त शिक्षक गुलाम नबी (78) ने कहा, “कश्मीरी मुसलामन अब प्रतिष्ठित प्रशासनिक सेवा, आईआईटी, आईआईएम में जगह पा रहे हैं। प्रवासी कश्मीरी पंडितों के बच्चों के लिए भी अवसरों की कोई सीमा नहीं है, उनके सामने पूरा आकाश खुला पड़ा है। लेकिन, मुझ जैसे बूढ़े आदमी के लिए, जो अपने पंडित दोस्त और पड़ोसी को ढूंढ रहा है, इससे यही साबित होता है कि सभ्यताएं ऐसी ही अमीरी के हाथों आखिरकार तबाह हो जाती हैं।”
— शेख कय्यूम
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