लोकभावनाओं को ध्यान में रख साहित्य रचना कीजाय। यह केन्द्रीय विचार था रविवार को पुस्तक मेले में हुई संगोष्ठी का। इस संगोष्ठी में अनेक जाने माने साहित्यकारों ने भाग लिया।
महिला बुद्धिजीवियों के संगठन ‘जिया’ एवं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संयुक्त तत्वावधान में रविवार को विश्व पुस्तक मेले के साहित्य मंच में “लोक को नकारे तो कैसा साहित्य ? ” विषय पर विचार गोष्ठी आयोजित की गयी। गोष्ठी में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी, सुप्रसिद्ध लोक गायिका श्रीमती मालिनी अवस्थी, आकाशवाणी में लोक सम्पदा विभाग के निदेशक सोमदत्त शर्मा, साहित्यकार प्रो. प्रमोद दुबे तथा दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रो.अवनिजेश अवस्थी ने विचार व्यक्त किये।
लोकसाहित्य की परंपरा से जुड़े सोमदत्त शर्मा ने बताया जो लोक में घटित होता है वह साहित्य में आ ही जाता है। इसलिए यह विषय यहाँ चुना गया है। लोक साहित्य रचना के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि लोक मन क्या है। जो सबके लिए मंगलकारी हो उसी को लोग स्वीकार करते हैं। यह चिता का विषय है कि इस समय एक भी साहित्यकार ऐसा नहीं है जिसको पूरे लोक ने स्वीकार किया हो। कबीर, तुलसी , जैसे भक्ति काल के कवियों को आज भी लोग स्वीकार करते हैं, जो मध्यकाल के कवि हैं।
उन्होंने कहा कि पिछली शताब्दी में देश में वामपंथी विचारधारा साहित्य में हावी रही जिसने समाज को अर्थ के आधार पर दो वर्गों में बाँट दिया। साहित्य में वर्ग संघर्ष हावी हो गया। इस तरह का संकीर्ण साहित्य सर्व स्वीकार्य नहीं हो सकता। भारतीय विचार में जो अच्छा है वह अमीर के लिए भी अच्छा है और गरीब के लिए भी अच्छा है। कबीर, तुलसी और मीरा लोक मान्यताओं के साथ सभी को साथ लेकर चले हैं इसलिए उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं।
प्रो. अवनिजेश अवस्थी ने कहा कि अगर पद्मावती फिल्म न बनती तो कितने लोग पद्मावत को जानते। आज कृति एक रचना नहीं उत्पादन बन गयी है। जो लोक में प्रतिष्ठित है वही सत्य है। जो लोक की मान्यता के विरुद्ध जाएंगे वह प्रतिष्ठित नहीं हो पाएंगे। लोक इस बात के परवाह नहीं करता कि कौन बड़ा नाम है। यह सर्वविदित है कि भारत एक आध्यात्मिक देश है, यहाँ जिस कवि ने अध्यात्म की बात कही वह हमारे मन मस्तिक में आज भी जीवित है। जबकि दरबारी, रीति काल के कवि भुला दिए गए हैं। कुछ लोगों के लिए साहित्य व्यवसाय की तरह है लेकिन ऐसा साहित्य कालजयी नहीं होता।
प्रमोद दुबे ने कहा कि कबीर और तुलसी में कोई अंतर नहीं है। कबीर लोक का इतना बड़ा विषय लेकर चलते हैं कि सत्ता उनको मार देना चाहती थी। कबीर और तुलसी एक दूसरे के पूरक है। लोक क्या है उसे हमें समझना चाहिए, ‘लोक’ और अंग्रेजी के शब्द ‘लुक’ सामान हैं, यानी जो दिखता है वह लोक है। हमारे वेद और लोक एक दूसरे के प्रतिबिम्ब हैं। जो वैदिक है, वह लौकिक है। लौकिक सार्वभौमिक है। लोकाचार बदलता रहता है लेकिन वेदाचार नहीं बदलता। विवाह आदि संस्कार वेदाचार से ही चलते हैं।
श्रीमती मालिनी अवस्थी ने कहा कि भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय रामायण और महाभारत महाकाव्य यद्यपि संस्कृत भाषा में लिखे गए, उस समय लोकभाषा के रूप में प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थी। लेकिन इनमें लोक दिखता है। अशोक वाटिका, अग्नि परीक्षा में सीता की व्यथा, द्रोपदी के भरी सभा में चीरहरण में लोक की पीड़ा भी झलकती है।
अवस्थी ने कहा कि प्रेमचंद की हर रचना में लोक दिखता है। रामचरितमानस में राम हर दृष्टि से सक्षम होते हुए भी सीता की खोज, सेतु निर्माण और लंका विजय में हनुमान, सुग्रीव, नल-नील, जामवंत, जटायू व विभीषण आदि सभी का सहयोग लेते दिखाई देते हैं। वर्तमान में साहित्यकार आत्मकेंद्रित अधिक हो गया है, उनकी रचनाओं में सबको साथ लेकर चलना दिखाई नहीं देता। लेखक की अपनी विचारधारा ज्यादा प्रकट होती है। इस कारण कालजयी नहीं बन पाता। लोक समृद्ध साहित्य से सभी लोग कुछ न कुछ लेते रहते हैं, लेकिन कॉपीराइट जैसी आपत्ति वहां से नहीं की जाती।
सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि हम आज सोचते हैं कि इसको लिखकर हमारी अलग पहचान बनेगी। इसलिए हम लोक को भुला कर अलग साहित्य लिखते हैं। इस तरह के लेखकों के कमरे पुरस्कारों से भले ही भरे हों लेकिन लोक उसे भुला देता है। मकर संक्रांति का पर्व धार्मिक कम और लोक से अधिक सम्बंधित है इसलिए हम आज से संकल्प लें कि भारत के उज्जवल भविष्य ले लिए लोकभावनाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य की रचना करें। — हेमलता गौतम
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