बृजेन्द्र रेही (Brijendra Rehi ) =========== कुछ वर्षों पूर्व दो नक्सलवादी (Naxalite) युवकों- किश्ता गौड़ा और भूमैय्या (Kishta Gowda and Bhumaiya) को फाँसी (Capital punishment) के फंदे पर लटका दिया गया था। तब इनको जीवनदान देने के लिए देश में आवाज उठी थी। जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने भी तत्कालीन राष्ट्रपति से मृत्युदंड (Capital punishment) को आजीवन कारावास में बदलने का अनुरोध किया था, किन्तु राष्ट्रपति नहीं माने।
(अब से लगभग 36 साल पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स के 17 जुलाई, 1983 के अंक में प्रकाशित मेरा लेख। आज भी उक्त लेख में उठाये गये सवाल अनुत्तरित हैं। क्या समाजशास्त्री, कानूनविद् और राजनेता उन सवालों के उत्तर खोजेंगे? – बृजेन्द्र रेही )
इसमें कोई दो राय नहीं कि फाँसी (Capital punishment) तथाकथित विकसित मानव-सभ्यता का एक बर्बर और पाशविक कानूनी हथियार (legal weapon) है। लोकतांत्रिक देशों में इस पशुवत् कानून का इस्तेमाल लंबी बहस का विषय बना हुआ है। हालांकि दुनिया के लगभग 70 देशों में मृत्युदंड (Capital punishment) कानून से बाहर कर दिया गया है। इनमें से कुछ देश हैंः आस्ट्रिया, ब्राजील, कोलम्बिया कोस्टारिका, डेनमार्क, इक्वाडोर, फिजी, फिनलैण्ड, जर्मन जनवादी गणतंत्र, होण्डुरास, आइसलैण्ड, लक्जम्बर्ग, नार्वे, स्वीडन, वेनेजुएला, उरूग्वे आदि।
इसी तरह कुछ देशों ने युद्धकाल को छोड़कर शेष शान्तिकाल में मृत्युदंड (Capital punishment) पर प्रतिबंध लगा दिया है। ये देश हैंः कनाडा, इटली, नीदरलैंड, पनामा, माल्टा, पेरू, स्पेन, स्वीट्जरलैण्ड आदि।
अब सवाल यह है कि क्या मृत्युदंड (Capital punishment)जारी रख कर उन अपराधों से समाज ने मुक्ति पा ली है, जिनके लिए यह दण्ड निर्धारित है? उत्तर ‘ना’ में ही है।
इस संबंध में ‘ब्रिटिश राॅयल कमीशन आन कैपिटल पनिशमेन्ट’ (Capital punishment) पर एक सरसरी नजर डाल लें। उसकी रिपोर्ट के 23वें पन्ने पर लिखा है: ‘हम प्रोफेसर सैलिन के इस विचार से सहमत हैं कि आँकड़ों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों से इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता कि इन राज्यों में मृत्युदंड का मानव-हत्या के अपराध की दर पर कोई प्रभाव पड़ा हो। आँकड़ों से यह भी स्पष्ट होता है कि भले ही मृत्युदंड का उपयोग किया जाए या न किया जाए। भले ही फाँसी जल्दी-जल्दी लगायी जाए या न लगायी जाए, हत्या के अपराध की घटनाओं की पुनरावृत्ति पर मृत्युदंड के बजाए अन्य कारणों का ही प्रभाव पड़ता है। ऐसा उन दोनों प्रकार के देशों में होता है जहाँ मृत्युदंड है और जहाँ समाप्त कर दिया गया है।’
इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्रसंघ (United nations) द्वारा 1962 में प्रकाशित ‘कैपिटल पनिशमेन्ट’ पुस्तक में कहा गया है- ‘एकत्रित की गयी सूचनाएं इस बात को पुष्ट करती हैं कि मृत्युदंड समाप्त कर दिए जाने से उन अपराधों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं होती, जिन पर से उन्हें हटा लिया गया है। हमारा यह मत 19वीं शताब्दी के अनुभवों को भी पुष्ट करता है जिसमें चोरी, राहजनी, धोखाधड़ी और नकली सिक्के बनाने पर से मृत्युदंड धीरे-धीरे हटा लिया गया। उसका परिणाम यह हुआ था कि मृत्युदंड आंशिक रूप से समाप्त हो जाने के फलस्वरूप इन अपराधों में वृद्धि की अपेक्षा कमी हो आई थी।
यह एक तथ्य है कि अभी तक हमारे यहाँ मृत्यदंड प्राप्त अपराधियों का कोई मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है। हाँ, फाँसी की सजा पाए कैदियों की जीवन चर्चा विचार के लिए अवसर अवश्य देती है।
उदाहरण के लिए विद्या जैन हत्याकांड के अभियुक्त उजागर सिंह को ही लें। जेल की सींखचों में उसने जीवन के बुझते हुए चिराग की लौ में आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन जारी रखा।
इसी तरह 70 हत्याएं करने वाला राजस्थान का शंकरिया (Shankariya) निरक्षर था, किन्तु जेल में वह पढ़-लिख गया। किसी और की नहीं- आत्म-प्रेरणा से, उसने एक दिन जेल अधिकारी से कहा था- ‘‘मैं मौत से पहले यह जान पाया कि जीवन क्या है? यदि मुझे जेल से छोड़ दिया जाए तो मैं नहीं जानता क्या काम करूं। पर वह काम कभी नहीं करूंगा, जिसकी मुझे सजा मिली। मैं जानता हूँ कि मुझे फाँसी होगी ही, पर मौत से पहले की इस ज़िन्दगी का मुझे गर्व है।’’
यों मौत की सजा का उद्देश्य यह है कि ऐसे अपराधी जो समाज के लिए घातक साबित हों, उन्हें फाँसी पर लटका दिया जाए या बिजली के झटके से उनका प्राणांत कर दिया जाए।
सभ्यता का तकाजा है, हिंसक-मानव को सभ्य मानव बनाना। यदि कानून ऐसा करने में सफल नहीं है तो यह उसकी कमजोरी है और इसीलिए एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दुनिया के कई देशों में मृत्युदंड के विरुद्ध अभियान चला रखा है। फिर मृत्युदंड चाहे राजनीतिक कारणों से दिया गया हो या आपराधिक कारणों से, वह समाज द्वारा किया गया एक अक्षम्य अपराध ही कहा जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘कैपिटल पनिशमेन्ट’ में पृष्ठ 61 पर लिखा गया हैः ‘मृत्युदंड के भय से अपराधों में कोई कमी नहीं होती, इस संबंध में जितनी भी परंपरागत दलीलें दी जाती हैं, वे निराधार हैं।
इसी रिपोर्ट में एक जगह यह भी कहा गया है- ‘शिष्टतावश हम चाहें कोई भी वक्तव्य दें, यह तो हम सभी जानते हैं कि न्यायपालिका भी गलती कर सकती है, और कुछ गलतियाँ तो निश्चित रूप से पिछले दिनों हुई हैं।’
हाल ही केन्द्र सरकार को पेश की गई ‘जेल सुधार समिति’ (Prison Reform Committee) की रिपोर्ट में विख्यात् कानूनविद् श्री आनन्द नारायण मुल्ला (Anand Narayan Mulla) ने लिखा है: ‘संसार में सबसे बड़ा दंड, मृत्युदंड है, और यदि अपराधों को रोकने में इसकी उपादेयता नहीं है, तो यह सोचना फिजूल होगा कि आजीवन कारावास का दंड वह भय उत्पन्न कर सकता है, जिससे अपराधों में कमी हों, यह तथ्य विश्व के अनेक देशों ने मृत्युदंड को समाप्त करके दिया है। यह इस बात का प्रमाण है कि इसकी क्रूरता तो स्पष्ट है, किन्तु अपराधों की रोकथाम में इसकी उपादेयता बिल्कुल नहीं है।
समिति ने सरकार को जो सुझाव दिए हैं, वे इस प्रकार हैंः
(1) जेल अधिनियम 1894 की धारा 30 (2) को बदला जाना चाहिए, यानी फाँसी की सजा पाए कैदियों को लंबे समय तक काल कोठरी में रखने के बजाए ऐसे ही अपराधियों को एक साथ बैरक में रखा जाए, उन्हीं अपराधियों को काल कोठरी में रखा जाए, जिन्हें अन्ततोगत्वा फांसी देनी ही है।
(2) राष्ट्रपति से दया याचिका संबंधी नियम संबंधित अपराधी को उसकी भाषा में विस्तार से बताए जाएं।
(3) राज्यों की किसी एक या आवश्यकतानुसार एक से अधिक जेल में फाँसी लगाने की व्यवस्था हो।
(4) फँंसी की सजा वाले कैदियों को उनके शौक के अनुसार उपयोगी काम पर लगाया जाए।
(5) शिक्षा, खेलकूद आदि की व्यवस्था हो।
(6) उनकी पारिवारिक समस्याएँ सुलझायी जाएँ।
हालांकि रिपोर्ट सरकार के विचाराधीन है, किन्तु अब यह तथ्य प्रमाणित हो गया है कि मृत्युदंड, एक बर्बर कानूनी व्यवस्था है। किसी लोकतांत्रिक देश में इस प्रकार की राजकीय हत्या का क्या औचित्य है?
और फिर हमारा देश तो बुद्ध और गांधी का देश है, जहाँ अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म माना गया है।
मृत्युदंड के बारे में गांधीजी ने कहा था, ‘मैं मृत्युदंड को अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध मानता हूँ। सिर्फ जीवन देने वाला ही जीवन लेने का अधिकारी भी है। हर अपराध एक तरह की बीमारी है और अपराधों का इलाज इसी दृष्टि से किया जाना चाहिए।’ पर इतिहास गवाह है कि ‘इलाज’ के नाम पर मनुष्य ने बदले की क्रूर भावना से ही काम किया है।
वैसे देखा जाये तो यह ‘इलाज’ वस्तुतः एक व्यक्ति के खिलाफ समाज का युद्ध ही है- ‘एक ऐसा युद्ध जो एक राष्ट्र उस व्यक्ति के खिलाफ छेड़ता है, जिसे मारना वह उपयोगी और आवश्यक मानता है।’ और इस ‘उपयोगिता’ और ‘आवश्यकता’ की परिभाषा का एक स्वरूप हमें इतिहास के उन उदाहरणों में मिलता है, जिनमें किसी को फाँसी की सजा दिया जाना एक सार्वजनिक समारोह होता था। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। लोगों को फाँसी देखने के लिए बाकायदा आमंत्रित किया जाता था, और दर्शकों को देखकर लगता था, जैसे वे देखने का मजा ले रहे हों।
वैसे अधिकारियों का तर्क यह रहा है कि इस तरह की सार्वजनिक फाँसी से दर्शकों को एक प्रकार की चेतावनी मिलती है, और यह ‘चेतावनी’ देने के लिए शेरिफ लोगों को ‘मनोरंजन’ के नाम पर बुलाते थे।
तथ्य साक्षी है कि सदियों से दी जा रही इस ‘चेतावनी’ का कोई असर नहीं पड़ा है। वस्तुतः मृत्युदंड न तो उपयुक्त सजा है न अपराध का कारगर इलाज।
अर्सा हो गया जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में देश के नौ वरिष्ठ नागरिकों ने अपने हस्ताक्षरों से एक घोषणापत्र जारी किया था। इसमें कहा गया था कि ‘मृत्युदंड’ एक अमानवीय सजा है जो मनुष्य के जिंदा रहने के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन करती है।’
यह बात इससे पहले भी दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग विचारधारा के लोगों ने कही है- और आज पहले से कुछ ज्यादा जोरों से कही जा रही है। अलग-अलग मंचों से अलग-अलग आधारों पर इस अमानवीय सजा को समाप्त करने की माँग उठ रही है।
इनमें से एक आधार यह भी है कि यह सजा एक तरह से समाज के एक वर्ग द्वारा, दूसरे कमजोर वर्ग को दबाए रखने का हथियार बनी हुई है। यह तर्क देने वाले अपने पक्ष में इस तथ्य का हवाला देते हैं कि ‘प्रारंभ से ही गरीब, कमजोर और अक्षम व्यक्ति जेलों में जाते रहे हैं, फाँसी पर चढ़ते रहे हैं।
‘अपराध, गरीबी और अज्ञान हमेशा साथ-साथ रहे हैं,‘ यह तर्क देने वालों की मान्यता है कि जब कानून बनाने वाले इस बात को समझ जायेंगे तो वे सजा देने के बजाए कारणों का निदान खोजेंगे।’ लेकिन इस बात को समझा कब जायेगा? और क्या तक तक इस राजकीय हत्या को जारी रहने दिया जाएगा? (नवभारत टाइम्स – 17 जुलाई, 1983)
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