डॉ. दिलीप अग्निहोत्री ====अमेरिका में हर चार साल बाद राष्ट्रपति चुनाव होता है, लेकिन इस बार का चुनाव मील का पत्थर साबित होगा। वजह यह कि सवा दो सौ साल के संवैधानिक इतिहास में वहां किसी महिला के राष्ट्रपति बनने की बात तो दूर, उम्मीदवार तक बनने का मौका नहीं मिला था।
महिला के रूप में प्रथम उम्मीदवार बनने का सौभाग्य हिलेरी क्लिंटन को मिला है। वह डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से किस्मत आजमा रही हैं। रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप भी चर्चा का रिकार्ड रहे हैं। ट्रंप आतंकवाद को लेकर एक धर्म विशेष के प्रति असहिष्णुता उजागर कर रहे हैं। कुछ भी हो, फैसले का समय करीब आ रहा है। चुनावी प्रक्रिया में नवंबर महीने को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की संपूर्ण प्रक्रिया दिलचस्प है। राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचन देश के मतदाताओं द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से होता है। यानी मतदाता एक निर्वाचक मंडल का चुनाव करते हैं। यह निर्वाचक मंडल राष्ट्रपति का चुनाव करता है। चुनाव के अलावा इस निर्वाचक मंडल का अन्य कोई कार्य नहीं होता।
अमेरिकी कांग्रेस के दो सदन होते हैं। प्रतिनिधि सदन में 435 जबकि दूसरे सदन सीनेट में 100 सदस्य होते हैं। इनका योग होता है 535, मगर कोलंबिया का प्रतिनिधित्व कांग्रेस में नहीं है, क्योंकि इसे प्रदेश नहीं जिला माना गया, फिर भी इसे राष्ट्रपति निर्वाचक मंडल मंे तीन सदस्यों के साथ जगह दी गई। इस तरह निर्वाचक मंडल की सदस्य संख्या 538 हो जाती है। यही पांच सौ अड़तीस सदस्य राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
निर्वाचित होने के लिए पूर्ण बहुमत की जरूरत होती है। यानी जिसे 270 या उससे ज्यादा वोट मिल जाते हैं, उसका राष्ट्रपति बनना तय माना जाता है।
निर्वाचक मंडल के सदस्यों का चुनाव दलीय आधार पर होता है। वह अपनी पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को ही वोट देते हैं। निर्दलीय प्रत्याशियों के किस्मत आजमाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन किसी निर्दलीय के लिए निर्वाचक मंडल में अपने 270 समर्थकों को जीत दिलाना संभव नहीं होता। ऐसे में दोनों प्रमुख प्रत्याशियों के बीच ही मुख्य मुकाबला होता है।
राष्ट्रपति पद का निर्वाचन प्रत्येक लीप ईयर यानी जब फरवरी उन्तीस दिन की होती है, उस वर्ष होता है। इस पद के लिए मध्यावधि चुनाव नहीं होता। यदि किसी कारण राष्ट्रपति पद रिक्त हो जाए, तो तत्काल उपराष्ट्रपति ही राष्ट्रपति बन जाता है। अपने पूर्ववर्ती के चार वर्षो में जितना समय शेष रहता है, उतने समय तक वह राष्ट्रपति रहता है। अगला चुनाव लीप ईयर में ही होता है।
चुनाव से पहले दोनों पार्टियां राष्ट्रपति पद के लिए अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन करती है। ये लंबी व जटिल प्रक्रिया होती है। 1840 से रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक, दोनों पूरे देश में सम्मेलन आयोजित कर प्रत्याशी पर फैसला लेते हैं।
दोनों पार्टियां राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधि चुनती हैं। इनमें राज्य व केंद्रीय समितियों के माध्यम से प्रतिनिधियों का चुनाव होता है। लीप ईयर के जुलाई या अगस्त महीने में यह सम्मेलन होता है। प्रतिनिधियों का पूर्ण बहुमत हासिल करने वाला राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनता है।
इसके बाद दोनों दलों द्वारा निर्वाचक मंडल के लिए उम्मीदवार उतारे जाते हैं। निर्वाचक मंडल का चुनाव नवंबर के पहले मंगलवार को होता है। निर्वाचकों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से मतदाता करते हैं। राज्यों में निर्वाचक मंडल के चुनाव सूची प्रणाली से होते हैं।
मत किसी उम्मीदवार को नहीं, बल्कि पार्टी को दिया जाता है। इसका मतलब है कि जिस राज्य में किसी पार्टी को बहुमत मिलता है, उसकी सूची के सभी प्रत्याशी निर्वाचक मंडल के सदस्य निर्वाचित हो जाते हैं। बुधवार को निर्वाचक मंडल के सदस्य अपने-अपने प्रदेश की राजधानी में राष्ट्रपति पद के लिए मतदान करते हैं।
मतों की गणना करके उसे सीनेट के अध्यक्ष के पास भेज दिया जाता है। वह कांग्रेस के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में मतों की गणना करता है, फिर औपचारिक तौर पर विजयी प्रत्याशी का नाम घोषित करता है। यदि राष्ट्रपति पद के दो उम्मीदवारों को बराबर मत मिलें या पूर्ण बहुमत न मिले तो, प्रतिनिधि सदन प्रथम तीन में से किसी एक को राष्ट्रपति निर्वाचित कर सकता है। ऐसी दशा में प्रतिनिधि सदन में प्रदेश का मात्र एक वोट होता है।
प्रत्येक राज्य के सदस्य बहुमत से तय करते हैं कि उनके प्रदेश का वोट किस प्रत्याशी को दिया जाएगा। उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में ऐसी स्थिति आने पर अंतिम फैसला सीनेट करती है।
पहले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव एक साथ होता था। सर्वाधिक वोट प्राप्त करने वाला राष्ट्रपति व दूसरे नंबर वाले को उपराष्ट्रपति बनाया जाता था। 1880 के बारहवें संशोधन द्वारा दोनों के अलग-अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई। निर्वाचक मंडल अलग-अलग उम्मीदवारों में से राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
संविधान के बीसवें संशोधन (1933) के अनुसार, नया राष्ट्रपति 20 जनवरी को शपथ लेता है। इसके पहले शपथ ग्रहण चार मार्च को होता था।
फिलाडेल्फिया सम्मेलन में संविधान निर्माण को अंतिम रूप दिया गया था, उसमें राष्ट्रपति का कार्यकाल चार वर्ष निर्धारित किया गया था। उसके पुनर्निर्वाचन पर कोई प्रतिबंध नहीं था, लेकिन राष्ट्रपति वाशिंगटन ने नई परंपरा शुरू की। वह दो कार्यकाल तक राष्ट्रपति रहे। आगे चुनाव लड़ने पर संविधान की कोई रोक नहीं थी, फिर भी उन्होंने तीसरी बार चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था।
इसके बाद राष्ट्रपति जैफरसन (1801-09) जेम्स मेडीसन (1908-17) जेम्स मुनरो (1817-25), एंड्र्यू जैक्सन (1829-37) ने तीसरी बार चुनाव न लड़कर वाशिंगटन की परंपरा को बनाए रखा। लेकिन राष्ट्रपति थियोडर रूजवेल्ट (1901-09) ने यह परंपरा तोड़ी। वह तीसरी बार चुनाव लड़े, मगर हार गए। इनके भतीजे फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट 1940 में तीसरी बार और 1944 में चौथी बार चुनाव लड़े, और जीते।
वर्ष 1951 में 22वां संविधान संशोधन किया गया। इसके बाद राष्ट्रपति के तीसरी बार चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह भी जोड़ा गया कि दो कार्यकाल या अधिकतम दस वर्ष तक कोई राष्ट्रपति रह सकता है।
सामान्यतया दो कार्यकाल आठ वर्ष के होते हैं। दो वर्ष और पद पर बने रहने का मौका मिल सकता है, मगर यह मौका उसी को मिलता है जो पहले उपराष्ट्रपति रहे और राष्ट्रपति का पद रिक्त होने के बाद शेष कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति बने। इस तरह अमेरिका की अध्यक्षीय शासन प्रणाली में लंबी प्रक्रिया के बाद ही कोई राष्ट्रपति बनता है।
(फाइल फोटो)
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