इस बार 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में राजनेताओं ने जैसा चाल, चरित्र और चेहरा प्रस्तुत किया है उससे भारतीय जनमानस को विचार करना चाहिए कि वे अपने लिए किस प्रकार का नेतृत्व पसंद करते हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया में राजनेताओं के व्यंग्य और ‘कर्कश बोल’ यह सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि क्या राजनीति में ‘वैचारिक शुचिता’ और संस्कार नाम की कोई चीज नहीं रह गई है? प्रखर गांधीवादी डाॅ. उषा मेहता ने कहा था ‘‘आज देश में कोई नेता ही नहीं रह गया है।’’ एकाध उदाहरण छोड़ दें तो यह बात लगभग अब साबित होती जा रही है।
एक संदर्भ मुझे और याद आता है। जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘अजातशत्रु’ में एक संवाद है जिसमें कहा गया है ‘‘नरों के पतन को रोकने की क्षमता नारियां ही रखती हैं किन्तु उनका भी पतन हो जाए तो उत्थान की संभावना नहीं रहती है।’’ यहां नर और नारी शब्द का प्रयोग मात्र उदाहरण के लिए है, किसी वर्ण या वर्ग पर टिप्पणी के लिए नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे नेतृत्व यदि दिशाहीन, भ्रमित और कुमार्गी हो तो जनता के मार्ग भटकने को कोई रोक नहीं सकता।
आज की राजनीति बड़बोलेपन, अहंकार, आत्मप्रवंचित और आत्म-मोह से भरी हुई है। अधिकांश नेता, प्रवक्ता, कार्यकर्ता और समर्थक ‘एक-दूसरे’ के विरोधी पर कटाक्ष और क्रूर शाब्दिक प्रहार करते ही दिखाई देते हैं।
आज की परिस्थिति में यह विचारणीय है कि क्या हम लोकतंत्र को वास्तव में जन-जन के लिए सार्थक और संस्कारवान बनाना चाहते हैं? क्या 70 साल की आजादी के बाद हमारा लोकतंत्र किसी ऐसी नदी के किनारे तो आ नहीं खड़ा हुआ है जहां सोच का पानी सूख गया है और जिसमें वैमनस्य के विषैले कीड़े कुदबुदा रहे हैं?
मुझे याद है, ‘समय के साक्षी’ के लिए जब मैं विख्यात गांधीवादी लेखक स्व॰ विष्णु प्रभाकर से बात कर रहा था, उस दौरान मैंने उनसे आज के हालात पर टिप्पणी करने को कहा तो उन्होंने तपाक् से कहा- ’’हे भगवान् ! तुम हो क्या ? अगर हो तो यह बताओ, यह सब क्या हो रहा है ?
—जनसमाचार
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